बुधवार, 12 जनवरी 2011

मेरा विभाग ही मेरी साधना है, मेरे छात्र ही मेरा पुरस्कार हैं- प्रोफेसर तोत्तोशी चाबा

शागी पेतैर द्वारा लिया गया साक्षात्कार


प्रोफेसर चाबा तोतोशि आजकल सेवानिवृत्त हो चुके हैं, इसलिए उनके पास महाकृति, लेटिन मॉन्दॉतन (लेटिन वाक्य संरचना)  को पूरा करने के लिए पर्याप्त समय है। यह पुस्तक धीरे-धीरे आकार ग्रहण करती जा रही है। वे अपने लिए तो अपने लिए वरन् छात्रों के लिए भी नित्य बड़ी-बडी कसौटियाँ रखते थे। कोई उनसे प्यार किया करता था तो कोई नफरत, पर यह निश्चित है उनके प्रभाव से बच नहीं पाया। उनके अध्ययन के आभामंडल के तेज से बच पाना असंभव ही था।


प्रोफेसर तोतोशि को  गत वर्ष भारत सरकार की संस्था राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान की ओर से उनकी संस्कृत  कार्यसिद्धि पुरस्कार प्रदान करने की घोषणा की गई। इस अवसर पर उनका साक्षात्कार पढ़ सकते हैं। प्रोफेसर तोतोशि के लंबे जीवन और सक्रिय कार्यकाल में विश्व, विश्व में समाज पूरी तरह से बदल गया है और वे आपने जीवन में भी बड़े परिवर्तन के साक्षी रहे। परिवर्तन तथा विकास के। उनकी गति अटूट रही और अपनी योजनाएँ यथेच्छ पूरी कर सके। अध्यापन में लेटिन और यूनानी के क्षेत्र से संस्कृत तक चले आए। हंगरी में भारतविद्या के अध्ययन-अध्यापन की जनक और स्थापक माना जा सकता है। उनकी आपबीती सुनाने का तरीका कुछ ऐसा था कि मुझे ऐसा लगा यह भी शुकसप्तति जैसी एक विविधतापूर्ण कहानी है जो मेरी आँखों के सामने साकार हो  रही है।

पेतैर शागि– हंगरी के वैज्ञानिक समाज में आपका जीवन अनूठा है। पिछली प्रणाली में अनेकानेक अल्पज्ञानी  पर महत्त्वाकांक्षी लोग उच्‍च पदों पर आसीन तथा अकादमीय सदस्यता हासिल करते दिखाई पड़ रहे हैं, आपका इस बारे में क्या नज़रिया है, सोच है?
प्रोफेसर तोत्तोशी चाबा–मैं तब मात्र ग्यारह साल का था, जब मैंने अध्यापक बनने का निश्चय किया था और बारह का, जब मैंने विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बनने का। मुझे एक पारिवारिक दोस्त की बात ने बहुत ज्यादा उत्तेजित किया था: विश्वविद्यालय में अध्यापक वह नहीं पढ़ाते जो पाठपुस्तकों में लिखा होता है, बल्कि वह जो उनके अपने चिंतन का परिपाक होता है। मेरे पिता ने इस पद को पाने का रास्ता दिखाया, साथ यह भी कहा कि यह एक महान चीज़ है, इससे और भी बड़े पद की कल्पना करना भी मुश्किल है। इस कारण मैं अधिक महत्त्वाकांक्षी नहीं था, और अपना यह लक्ष्य पा लेने के कारण पूरी तरह से संतुष्ट हूँ।
पे.शा.– ऐसे में आपको ज्यादा अहम क्या लगता था- अपने शोध का परिणाम पढ़ाना या किसी को अधिक बुद्धिमान बनाना?
प्रो. तोतोशि–किसी को बुद्धिमान बनाना। मैं इसलिए कभी भी नहीं पढ़ाता कि अपनी विद्वत्ता प्रदर्शित करूँ। मेरे छोटे भाई को उसका गणित का अध्यापक उत्तीर्ण नहीं करना चाहता था। तब मैं उसे सुकरात (सोक्रातीस) की प्रश्नात्मक पद्धति से सिखाने लगा, और उसके सहारे विद्यालय की ७वीं कक्षा तक वह प्रथम श्रेणी का हो गया। मेरा काम इतना ही था मैं प्रश्न पूछूँ और उसे हल खोजने दूँ।
पे.शा.– तो क्या भाई के अलावा औरों को भी पढ़ाना भी जल्दी ही आवश्यक हो गया?
प्रो. तोतोशि–मेरे पिता विद्यालय में हंगेरियन, जर्मन तथा इतिहास पढ़ाते थे। वे 1943 में सेवानिवृत्त हो चुके थे जब उनका स्वर्गवास हुआ। कहा जा सकता है कि अच्छा हुआ, वरना साम्यवादी प्रणाली में उनको जहर के घूँट पीने पड़े होते। 1918-19 की वामपंथी टकराव के दौरान भी उन्हें निलंबित किया गया था। हमारा वंश ऊँची जात का है, भले ही गरीब हो गया था। पुराने दस्तावेज़ो में 1335 से ही एक दुर्गाध्यक्ष तोतोशि का ज़िक्र प्राप्त है। मेरे पुण्य पिताजी कहा करते थे कि उनकी पढ़ाई अधूरी रह गई होती, यदि उनके गाँव में एक यहूदी न होते, जो दस मोहरें देने के लिए तैयार हो गए थे। इसके नाते ही वे अध्यापक बन सके। यह पद उस समय बढ़िया आजीविका जुटाता था। हमारे पास दो हवेलियाँ थीं और बालातोन झील के किनारे एक आरामघर। हमारी ५ कमरों वाली मुख्य हवेली के साथ, निजी पुस्तकालय भी 9 फरवरी 1945 को, जर्मन फौज़ के आक्रमण के आखिरी दिन भस्म भर रह गई । पिताजी ने कहा था कि मर्द कभी डरता नहीं है। इस वजह से उस दिन भी मेरे दिल में भय नहीं था। मेरी उम्र तेरह साल थी फिर भी  मैं जलते हुए मकान से बंदूकों की गोलियों की बौछार में सबसे पहले भाई को बगल में लिए सड़क पार करके दूसरे घर में शरण लेने पहुँच गया।
1945 में जब घर और आरामघर के सरकारीकरण हो गया, माताजी का विधवादेय भी रद्द कर दिया गया, तब से  परिवार के गुजारे के लिए मुझे पैसे कमाने पड़े। लेटिन सिखाने लगा, उस दौर में अंतिम ऐस्तैर्हाज़ि के  राजकुमार का अध्यापक मैं ही था। भले ही बाद में माताजी को नए सिरे से पैसे मिलने लगे, पर मैं आजीवन उन्हें अपने वेतन का आधा हिस्सा देता रहा।
पे.शा.– आप प्रत्येक विषय में प्रतिभाशाली थे, अंततः लेटिन व यूनानी क्यों प्रधान हुईं।
प्रो. तोतोशि–कामयाबी, मैं ऐसा समझदार बच्‍चा था जो नीति के अनुकूल चलता है। पिता से सीखा था कि जिसकी अंतरात्मा पवित्र हो, वह शांति से सो सकता है। इसलिए में आराम से सोता था और अभी भी सोता हूँ। जब दादीजी दशादेश समझाती थीं। वहाँ तक आ पहुँचे कि चोरी करना अपराध है, तो उन्होंने कहा कि इसका विस्तार करना व्यर्थ है, क्योंकि हमारे परिवार में ऐसा हो ही नहीं सकता। मुझे छलना भी नहीं आता, मेरी रुचि केवल श्रेष्ठ समाधान में है। जैसे मेरे लिए मन में गिनना शौक-सा था। एक बार जब मैंने कक्षा में सब से पहले उत्तर दे दिया, पट्ट पर उससे अलग परिणाम लिखा गया। सब हँसने लगे, लेकिन मैं अड़ गया, जानता था कि मेरा उत्तर सही है। अंत में साबित भी हो गया कि सारी क्लॉस ही नहीं अध्यापक भी गलत थे। पर तारीफ़ कभी किसी ने नहीं की, यह तारीफ़ ही एकमात्र ऐसी चीज़ है जो मेरी जिंदगी से ग़ायब है। लेकिन लेटिन क्यों? तेरह साल का था जब लेटिन अध्यापक ने कहा, प्रशासक चाहते हैं कि लेटिन सिर्फ माध्यमिक स्कूल की उच्‍च कक्षाओं में पढ़ाई जाए। सुनते ही मुझे गुस्सा आया, 1945 में भी मेरी प्राथमिकता थी कि हमारी पुरानी, परंपरागत लेटिन- तथा यूनानीनिष्ठ संस्कृति जीवित होती जाए। कई साल बाद प्रोफेसर त्रैंचेञि-वल्दप्फ़ैल ने मुझे लेटिन-यूनानी प्रचारिणी समितियों का सचिव बनाया और 1990-1992 में नई प्रणाली चालू और मजबूत होने, तथा खतरा खत्म होने तक मैं इनमें काम करता रहा।
पे.शा.– आप विश्वविद्यालय में उस समय पढ़ते थे जब विद्या से जाति को ज्यादा अहमीयत देते थे। उस बेहाली से भी आपको कुछ नुकसान हुआ?
प्रो. तोतोशि–1949 में सरकार ९० प्रतिशत दाखिला किसान-मजदूर संतानों को देने में व्यस्त थी। कोई भी यह स्वीकारने के लिए तैयार नहीं था कि मेरे नाम की वर्तनी द्वित्य टी, द्वित्य एस व वॉय से होती है। सब का व्यवहार मेरी ओर घटिया रहा। शुरू में लेटिन और यूनानी के साथ हंगेरियन साहित्य भी पढ़ता था, लेकिन उसमें अपने खानदान के मारे अच्छे अंक पाने की संभावना न के बराबर थी, तो दो साल बाद छोड़ दिया। वह प्राध्यापक जिसने पिता का मित्र होने के नाते माताजी से वादा किया कि इस हालत में विश्वविद्यालय में मेरी देखभाल करेगा, वह भी गलियारे में मुझे पहचानना भी नहीं चाहता था।
पे.शा.– अंततः आपको विश्वविद्यालय में नौकरी कैसे मिली?
प्रो. तोतोशि–ऐसा लगता था कि ऐसी नौबत नहीं आएगी, कुछ नहीं मिलेगा। पहले से भी शर्त थी कि प्रोफेसर केवल किसी ओत्वोश कॉलेज में पढ़े हुए छात्रों में से ही कोई बन सकता है। ऐसा न हो कि राजधानी के धनाढ्य युवक, रईसजादे भी कुछ पा सकें। फिर यूनानी विभाग में थोड़ी संभावना होने लगी, जो उस समय अध्यापक बनने के करीब थे, अलग क्षेत्र में शोध करते थे। प्रोफेसर त्रैंचेञि-वल्दप्फ़ैल नहीं चाहते थे कि प्रोफेसर हर्मत्ता विभागाध्यक्ष बनें,इसलिए उन्होंने उनके लिए भारोपीय अध्ययन विभाग खोल दिया। यहाँ जुलाई 1953 से मुझे भी प्रो. हर्मत्ता के पास काम करने का मौका मिल गया। उनका नजरिया था कि मैं कुछ भी अपने-आप सीख सकता हूँ। 1971 तक विभाग में हर्मत्ता और मैं दोनों थे, और मुख्य रूप से अपने शोध के साथ-साथ लेटिन व्याकरण पढ़ाते थे। वैसे विभाग खोलने की अनुमति इसलिए मिली, क्योंकि 1952 में महाभाषावैज्ञानिकस्टालिन ने मार्क्सवाद का परित्याग किया और भारोपीय भाषा परिवार की धारणा की चर्चा और अध्ययन-अध्यापन करना जो नात्सी युग के दौरान बदनाम हुआ, फिर से मुनासिब हो गया।
लेटिन विभाग की एक अध्यापिका, स्वर्गीय इलोना कोमोर ने पहली बार सुझाव दिया कि मुझे संस्कृत भाषा सीखनी चाहिए  अगर भारोपीय तुलनात्मक भाषाविज्ञान में जाना है। मैंने सलाह मानी। पहले विश्वयुद्ध से पूर्व हंगरी में जो संस्कृत जानने वाले विद्वान थे, वे तब तक गुजर चुके थे। उस समय कोई संस्कृतविद् तो था ही नहीं, बल्कि समाजवादी शासन के सबसे कठिन दौर में विदेशी किताबों-पाठपुस्तकों का भी घोर अभाव था।
पे.शा.– इस परिस्थिति में आपने संस्कृत कैसे सीखी?
प्रो. तोतोशि–आरंभ में मेरे पास फ़िक का व्याकरण और एकमात्र शब्दकोश था, वह भी बहुत अच्छा नहीं। उस समय भारत के विषय में सारी किताबें एक ही अलमारी में पाई जा सकती थीं। आज कई गुना अधिक हैं। हफ्ते में चालीस घंटे संस्कृत पढ़ता गया, और एक कठिन पाठ चुना अनुवाद करने के लिए। यह हुआ शुकसप्तति यानी तूतीनामा, जो थोड़ी देर में मेरी पीएच.डी. का विषय बन गया। पहली बार इसे निर्णायक समिति के सामने प्रस्तुत करने की औकात 1956 में आई, पर मेरे छोटे भाई की क्रांति में भागीदारी और कैद की सज़ा की वजह से यह अनुमति निलंबित हो गई, और दुबारा मौका सिर्फ 1962 में मिला। उसी साल शुकसप्तति का अनुवाद भी छपा।
पे.शा.– 1956 की क्रांति के नाते कई अध्यापकों को विश्वविद्यालय से जाना पड़ा।
प्रो. तोतोशि–हाँ, ऐसा हुआ। मैं 23 अकतूबर को भी पढ़ा रहा था और मैंने अपने सारे छात्रों को भाग न लेने की सलाह भी दी। नहीं मानी, मेरी पसंदीदा छात्रा ने गोली खाकर दम तोड़ दिया। वास्तव में अगर कोई उस समय समाचारों और अंतर्राष्ट्रीय वातावरण को नजरंदाज करता था, तो उसको स्पष्ट था, सवाल तक नहीं उठा, कि क्रांति सफल हो सकती। परिस्थितियाँ इसके खिलाफ थी।
पे.शा.– आप अपनी जगह रहे और उसी साल हंगरी में इकलौते संस्कृतविद् होते हुए भी भारतविद्या पाठ्यक्रम चालू कर सके।
प्रो. तोतोशि–हंगरी के नेता भारतविद्या कॉर्स चालू करके भारत को प्रसन्न करना चाहते थे, और मंत्रालय यहाँ तक होशियार था कि अगर यह विभाग है, जिसके नाम में भारत शब्द पाया जाता है, तो तुरंत काम हो जाएगा। बधाई कि नेताओं की फरमाइश पहुँचने तक मुझे प्रचुर मात्रा में संस्कृत आने लगी थी। 1957 से लंबी मुद्दत तक संस्कृत मैं ही पढ़ाता था, प्रो. हर्मत्ता का क्षेत्र भारोपीय और ईरानी भाषाविज्ञान रहा। इसलिए कि मैं देर तक संस्कृत पढ़ाने के लिए अकेला था, इस क्षेत्र में मेरा अध्ययनसंबंधी काम ज़्यादा रहा, जबकि शोधकर्ता का काम लेटिन के क्षेत्र में करता था। कुल-मिलाकर साढ़े ४८ साल पढ़ाता था, और लेटिन व्याकरण पढ़ाना ४७ साल तक मेरी वरीयता थी। लेटिन व्याकरण के प्रस्ताव को पूरी तरह से नया रूप दिया, और फिलहाल लेटिन वाक्यनिर्माण विषय पर अपना बृहद वाक्यविज्ञान लिख रहा हूँ।
मैं  इंडोलोजी पढ़ाना, संस्कृत के पाठ पढ़ना और समझाना - विशेषतः जटिल शुकसप्तति को - मन का विलास मानता आया हूँ। यह एक अनूठी संस्कृति है जिसमें ३००० वर्षों से लगातार कृतियों को वाचन या लिखित रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने की अटूट परंपरा है। संस्कृत भारोपीय भाषाओं का आधारभूत आकार है, कठिन विषय। मेरा दायित्व था कि मूर्खों को इसकी ओर से फेरूँ। मेरी कक्षा में छात्र रोया भी करते थे, पर इसलिए नहीं कि यह मेरा आशय था। निकष से डरते थे। मेरे लिए हमेशा स्वाभाविक रहा, कि किसी चुनौती का हल पा सकता हूँ। जिसमें इतना आत्मविश्वास नहीं है, वह निश्चित तौर से बेबस बैठेगा, पर नाम तो नहीं कमा सकता।
पे.शा.– क्या आपने पहले भी कभी भारत की यात्रा की है?
प्रो. तोतोशि–हाँ, दो बार जा चुका हूँ। पहली बार 1972 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यलय के एक सम्मेलन में शामिल हुआ और 1982 में वाराणसी में आयोजित एक बैठक में भाषण दिया। वैसे कई और भाषावैज्ञानिक सम्मेलनों में भाग लिया था पूरे विश्व में।
पे.शा.– आपके छात्र कहते हैं कि आप सिर्फ तथ्य नहीं पढ़ाते थे, आप यह सिखाते थे, कैसे, जरा बताइए।
प्रो. तोतोशि–हाँ, कोई ऐसी लड़की भी मेरी छात्रा रही जिसकी भारत से खास रुचि नहीं थी, लेकिन वह जानती थी कि मेरे साथ वह अपनी बुद्धि और तेज़ कर सकती है, जैसा कि उस पर सान धरती हो। मुझे प्रसन्नता होती है कि भारोपीय अध्ययन विभाग में जिसका अध्यक्ष प्रोफेसर हर्मत्ता के सेवानिवृत्त होने के बाद, 1987 से मैं रहा, वे ही पढ़ते हैं, जो मेरी बातें मानते थे और जिनकी मनोवृत्ति मेरे अनुकूल है। मैं हर दूसरे साल केवल दो छात्र पढ़ाता था, जिन्हें ३०-३५ उम्मीदवारों में से चुनता था। इन्होंने भारतविद्या, इस अद्भुत क्षेत्र में एक-एक विषय अपना अध्ययन का केंद्र बनाया और सब बेहतरीन निभाते हैं। मेरी शान है कि ३७ स्नातक छात्रों में से अनेक पीएच.डी. तक पढ़े हैं और सात यहाँ या दुनिया की किसी दूसरी संस्था में विश्वविद्यालय के स्तर पर अध्यापक व शोधकर्ता हैं। मेरा मानना है कि एक अध्यापक नसैनी जैसा है, जो अपने काम में तब कामयाब होता है जब अपने छात्रों को अपने आप से ऊपर पहुँचा सकता है।

प्रोफेसर तोतोशि छात्रों की पीढ़ियों के लिए अपनी कहावतों और आदतों के कारण सुप्रसिद्ध हो गए। कोई भी यह नहीं भूल सकता -कि उनकी कक्षाएँ रात के आठ से बारह बजे तक हुआ करती थीं,  -कि वे छात्राओं के लिए टैक्सी बुलाते थे, कि केवल उस कक्ष में प्रवेश करते थे जिसका कम से कम तापमान पच्‍चीस-तीस डिगरी होता था, -या कि दोनों कलाइयों में घड़ी बाँधते थे, फिर भी अक्सर देर से आते। पर सबसे पहले सभी  को यह याद आता  है कि  उनके रूप में एक भद्र मानव और एक  महान वैज्ञानिक ने एक ही शरीर का रूप धारण कर लिया है।

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

मुर्गा

अनुवाद- असग़र वजाहत
नाट्य रूपांतरण- साश ओर्शोल्या

दृश्य १

(ज़मींदार अपने खेतों के सामने खड़े मज़दूरों को निर्देश दे रहा है)

ज़मींदार - ठीक से काम करो...। जल्दी हाथ चलाओ...। क्या हाथों में जान नहीं है? तुम सब पक्के आलसी हो!

(किसान आता है)

किसान - (झुककर हाथ जोड़ता है) बंदगी सरकार।

ज़मींदार - तू आ गया रामदीन। मैं तुझसे बहुत नाराज़ हूँ।

किसान - क्या गलती हो गई मालिक?

ज़मीदार - तेरे पास एक मुर्गा है न?

किसान - जी मालिक।

ज़मीदार- आज सुबह मैं गहरी नींद सो रहा था तो उसने इतनी ज़ोर से कुकड़ू कूँ की कि मैं जाग गया। मेरी नींद खराब हो गयी।अब मैं तेरे मुर्गे को सज़ा दूंगा।

किसान - मुर्गे को सज़ा?

ज़मीदार- हाँ, और नहीं तो क्या? मेरी नींद खराब करना मामूली जुर्म है क्या? जा, अपने मुर्गे को काट डाल! उसे अच्छी तरह साफ़ कर। फिर बढ़िया घी और अच्छे मसालों में उसे पका। और मेरे पास ले आ। उसे खाकर जब सोऊंगा तब मेरी नींद पूरी होगी। समझा?

किसान - जी मालिक

ज़मीदार- और उसके साथ पीने के लिए बढ़िया शर्बत बनाकर लाना। समझा? जा!

किसान - ठीक है मालिक।

(किसान चला जाता है)

ज़मीदार- (मज़दूरों से) तुम लोग फिर सुस्त पड़ गए। गाली नहीं खाते हो तो काम ही नहीं करते। मैं तुम्हारी चमड़ी अलग कर दूंगा। जल्दी हाथ चलाओ!

(ज़मींदार का नौकर रामू तेज़ी से आ रहा आता है)

ज़मीदार- क्यों बे तूने आने में इतनी देर कैसे कर दी?

रामू - देर कहाँ कर दी? मैं तो भागता हुआ आ रहा हूँ।

ज़मीदार- झूठ बोलता है कमीने। चल, मुर्गा बन जा। तेरी यही सज़ा है।

(रामू मुर्गा बन जाता है। ज़मींदार उसकी पीठ पर बैठ जाता है)

रामू - मेरा दम निकला जा रहा है मालिक...।

ज़मीदार- चुप रह।

(किसान हाथ में एक थैला लिए आ रहा है)

ज़मीदार- ले आया?

किसान - जी मालिक।

ज़मीदार- ला दे।

(उठकर थैला ले लेता है)

ज़मीदार- (स्वगत कथन) वाह, खुशबू तो बढ़िया आ रही है। खाने में मज़ा आ जाएगा। और शर्बत की बोतल भी है। मैं खाने को रामू के हाथ घर भिजवा देता हूँ और रात में खाऊँगा। मुर्गे की टाँगें चबाऊंगा। (चटकारा लेता है)। ओहो, लेकिन एक डर है। रामू बदमाश है। उसे यह न पता चलना चाहिए की थैले में क्या है। नहीं तो रास्ते में एक टांग चटकर जाएगा।

(किसान से) ठीक है तुम जाओ। (रामू से) देख, यह थैला घर ले जा और ज़मींदारनी को दे देना। रास्ते में इसे खोलकर मत देखना। इसमें ज़िंदा मुर्गा है। वह भाग जाएगा। और बोतल में ज़हर है। उसे तो हाथ भी न लगाना। नहीं तो तू मर जाएगा।ले जा।

(रामू थैला लेकर चल देता है)

दृश्य २

(रामू थैला लिए चला जा रहा है)

रामू - (स्वगत कथन) वह मुर्गा मियाँ वाह! ज़रा मुर्गे की आवाज़ तो सुनूं। (थैले को कान के पास लाता है) आवाज़ तो नहीं आ रही पर खुशबू बहुत आ रही है। (बैठ जाता है, थैला खोलता है) वह, यही है ज़िंदा मुर्गा। (खाता है) और यह ज़हर (बोतल खोलकर पीता है) बड़ा अच्छा ज़हर है।मज़ा आ गया। (मुँह पोंछता हुआ) चलो अब चादर तानकर सोया जाए। (मंच के एक कोने में सो जाता है)

दृश्य ३

(ज़मींदार अपने घर पर पत्नी के साथ)

ज़मीदार- लाओ मुर्गा और शर्बत लाओ! मैं बहुत भूखा हूँ।

ज़मींदारनी - पागल तो नहीं हो गए हो? या दिन में सपने देखने लगे हो? कैसा मुर्गा और कैसा शर्बत?

ज़मीदार- क्यों क्या रामू नहीं लाया?

ज़मींदारनी - रामू तो यहाँ आया ही नहीं

ज़मीदार- मैं जाता हूँ हरामज़ादे को पकड़कर लता हूँ। न जाने कहाँ मर गया...।

दृश्य ४

(रामू सो रहा है। ज़मींदार उसे लात मारकर उठाता है। रामू घबराकर उठ जाता है।)

ज़मीदार- उल्लू के पट्ठे! मुर्गा और ज़हर कहाँ गया? बता नहीं तो मार डालूँगा!

रामू - राम कसम मालिक, मुर्गा तो रस्ते में कुकुड़ू कूँ कुकुड़ू कूँ बोलता रहा और फिर थैले से निकलकर भाग गया। मैं उसके पीछे दौड़ा। मुर्गा भागता रहा। मैं उसके पीछे दौड़ता रहा। पर वह जंगल में गायब हो गया। तब मैंने सोचा कि आप मुझे बहुत मारेंगे तो मैंने सोचा मैं मर ही क्यों न जाऊं? मैंने वह ज़हर पी लिया जो बोतल में था।

ज़मीदार- बदमाश तो यहाँ क्यों लेटा था?

रामू - ज़हर पीकर मरने का इंतज़ार कर रहा था मालिक।

खेत में रहने वाला ख़रगोश और साही

रीता ज्वारा

एक बार गर्मियों के दिन में खेत में साही से मिला। ख़रगोश ने साही को गुस्सा दिला दिया। वह उससे कहता है :

- साही तुम, इन मोटे पैरों से चलने की हिम्मत कैसे करते हो ? कैसे चल पाते हो ?

साही क्रोधित होकर ख़रगोश से बोली :

- मैं इन मोटे पैरों से तुम से भी तेज़ दौड़ सकती हूँ।

ख़रगोश कहता है :

- मैं ऐसा नहीं सोचता।

- अरे, अगर तुम नहीं सोचते हो तो हम दाँव लगाएँ !

उन्होंने जल्दी से दाँव लगाया। जब दाँव तैयार हो गया तो ख़रगोश साही से पूछता है :

- हम कब दौड़ेंगे ?

साही कहती है :

- कल सुबह, जब आठ बजे वाली रेलगाड़ी चलती है :

ख़रगोश कहता है :

- अभी क्यों नहीं ?

- क्योंकि मुझे खाना खाने के लिए घर जाना है। कल सुबह आठ बजे हम दोनों इसी स्थान पर होंगे।

साही घर चली गयी। घर पर उसकी पत्नी खाने के साथ इंतज़ार कर रही थी। खाने के बाद उसने पत्नी से कहा जो हो सो हो गया।

- मैंने ख़रगोश से दाँव लगाया कि मैं उससे जल्दी से दौड़ सकता हूँ।

उसकी पत्नी ने कहा :

- तुम पागल हो। तुम कैसे बेहतर दौड़ सकते हो ?

- हम कुछ करेंगे !

दूसरा दिन उन्होंने सुबह का खाना खाया, उसके बाद वे खेत पर गये। लेकिन वे वहाँ नहीं गये जहाँ उन्हें ख़रगोश से मिलना था पर खेत के दूसरा किनारे पर गये। वहाँ साही ने अपनी पत्नी को एक झाड़ी में छिपाया। उसने कहा :

- जब तुम ख़रगोश को देख लो तब तुम ज़ोर से चीख़ना : „मैं अभी आयी !”

उसके बाद साही खेत को दूसरा छोर पर गया। वहाँ ख़रगोश से मिला।

- नमस्ते, ख़रगोश यार !

- नमस्ते, साही यार !

- क्या तुम आ गये ?

- मैं आ गया।

- क्या हम दौड़ेंगे ?

- हाँ।

- कैसे और कहाँ ?

साही ने कहा :

- मैं इस सड़क पर दौड़ती हूँ, तुम उस पर। इससे हम एक दूसरे को दौड़ने में रुकावट नहीं डाल सकेंगे।

- ठीक है।

ख़रगोश एक सड़क पर, साही दूसरी सड़क पर ख़ड़े थे। तो साही ने ख़रगोश से कहा :

- मैं गिनता हूँ। जब मैं तीन कहता हूँ तो हम रवाना होंगे। एक, दो, तीन !

तब वे दोनों रवाना हुए पर साही सिर्फ़ कूदा और एक झाड़ी में छिप गया लेकिन मादा साही खेत के दूसरे घोर पर थी। जब ख़रगोश वहाँ पहुँचा तो वह चीख़ दी :

- मैं अभी आयी !

तब ख़रगोश ने कहा :

- यह ठीक नहीं था, दूसरी बार दौड़ें !

तो उन्होंने वापस दौड़ने लगे पर वह साही भी कूदा और छिप गयी । ख़रगोश वैसे तेज़ से दौड़ा, उससे पहले ऐसे कभी नहीं। जब वह खेत के घोर पहुँचा, दूसरे साही ने चीख़ा :

- मैं अभी आया !

- यह ठीक नहीं है, दूसरी बार दौड़ें !

वे एक बार फिर दौड़े। साही छिप गया, ख़रगोश वैसे दौड़ा जैसे सका। जब वह खेत के दूसरा घोर पहुँचा, दूसरी साही ने भी चीख़ा :

- मैं अभी आयी !

- ठीक नहीं – ख़रगोश कह रहा है – हम एक और बार दौड़ते हैं, चौथी बार।

लेकिन इस बड़ी दौड़ में ख़रगोश के पैर काँपना लगे। वह खेत के मध्य में गिर गया, दौड़ नहीं पाया। दोनों साही ख़रगोश की हँसी उड़ाये क्योंकि वे जीत गये। वे घर गये और आज भी रहते हैं अगर वे नहीं मर गये।

घुड़सवार सैनिक और नौकरानी

रीता ज्वारा

बहुत समय पहले ब्राह्मण की पत्नी ने रकाबी, परात और दूध वाला बर्तन टोकरी में रखा था। उसने उन्हें नहर में धोने के लिए नौकरानी को भेजा। नौकरानी ने धोते समय देखा कि तभी एक केकड़ा पानी से बाहर आ रहा है। उसने तब तक कभी भी केकड़ा नहीं देखा था, इसलिए वह उसको लगातार ताक रही थी, उससे थोड़ा सा भी डरती है। लेकिन वहाँ घुड़सवार सैनिक घोड़े पर जाता है।

- नौकरानी उससे पूछता है :

- अरे, सैनिक जी, वह वहाँ क्या है ?

- मेरी छोटी बहन यह एक केकड़ा है – सैनिक ने उत्तर दिया।

इस के कारण सेविका साहसी हो गयी, वह केकड़ा के पास गयी, देखने लगी और बोली :

- वह चढ़ाई है।

- वह केकड़ा है। - सैनिक ने फिर से बताया है।

- वह चढ़ाई है। - सेविका का उत्साह बढ़ गया।

- वह केकड़ा है। - सैनिक तीसरी बार कहता है।

- अरे सैनिक जी, क्यों बता रहे हैं जब मैं ठीक से देख सकती हूँ कि यह एक चढ़ाई है। - सेविका कहती है।

- लेकिन आप क्यों बता रही हैं, जब मैं ठीक से देख रहा हूँ कि यह एक केकड़ा है। - सेविका पूछता है।

- अरे, मैं अंधी और पागल नहीं हूँ, मैं ठीक से देख रही हूँ कि यह चढ़ाई है।

- अरे, मैं अंधा और पागल नहीं हूँ, मैं ठीक से देख रही हूँ कि यह केकड़ा है।

नौकरानी को गुस्सा आ जाता है और अपने सारे बर्तन ज़मीन में ऐसे मारती है कि उनके दुकड़े दुकड़े हो गये। वह गुस्से में भरकर कहती है :

- ईश्वर, मैं मर जाऊँ अगर यह चढ़ाई नहीं है।

सैनिक अपने घोड़ से नीचे कूदता है, अपनी तलवार निकालता है। घोड़े की गरदन काटकर कहता है :

- ईश्वर, मुझको अनुमति देना कि घातक मेरी गर्दन को काट देना है अगर यह केकड़ा नहीं है।



सैनिक पैदल चला गया और सेविका भी बर्तनों के बिना घर चली गयी। ब्राह्मण की पत्नी ने उससे पूछा :

- बर्तन कहाँ हैं ?

सेविका सुनाती है उसके और सौनीक के बीच में क्या हुआ था।

- क्या तुमने इसी कारण मेरी हानी की ?

- मैंने उसे अच्छी तरह से देखा था कि वह एक चड़ाई है। इसलिए इस बात को छोड़ नहीं पायी। फिर भी वह बुरे सैनिक हमेशा उसे केकड़ा बता रहा था।

ब्राह्मण की पत्नी चूल्हा को गरम कर रही थी पर उसने वैसे गुस्सा किया कि अपना नया कोट चूल्हा में डाला। उसने कहा :

- आग मुझे ऐसे जलाना अगर तुम दोनों पागल नहीं थे !

- यहाँ क्या जल रहा है ? – बाहर आकर ब्राह्मण ने पूछ रहा है। जब उसने मालूम कर लिया कि केकड़े और चड़ाई के बीच में क्या हुआ तो उसने अपने चोगे क्रोधी से काट दिया। उस समय में उसने कहा :

- घातक मुझको ऐसे काट देना है अगर तुम तीनों पागल नहीं थे !

गड़रिया अपने भेड़े के साथ वहाँ चल रहा था। जब उसने भी मालूम कर लिया कि क्या हुआ, दंड से भेड़े को मार डाला। उसने कहा :

- ईश्वर मुझको मार डालना अगर तुम चारों पागल नहीं थे !

गाँव का मुखिया एक सन्दूक लेकर आ रहा था। उसने भी गुस्सा किया और सन्दूक को फेंक दिया। हर महँगा चादर ज़मीन पर फैले।

- ईश्वर मुझको अभी मार डालना अगर तुम पागल नहीं थे !

ब्राह्मण का सेवक भी आ गया। चादर ज़मीन पर देखकर हाथ पर हाथ मारने के बाद पूछता है : क्या हुआ ? जान लेकर उसने चादर लिया और उनको काट दिया।

- शैतान मुझको काट ऐसा देना अगर तुम पागल नहीं थे !

इसके बाद सारे गाँव ने मालूम कर लिया। लोग ब्राह्मण का घर जलाकर कहते है :

- - आग हम सब को जलाना अगर तुम पागल नहीं थे !

कर भला हो भला

रीता जुली शिमोन

यह नीतिवचन शायद दुनिया के सब देशों में लोकप्रिय है। इसे अधिकांश लोग सत्य भी मानते हैं, क्योंकि यह सभी के द्वारा स्वीकार किया जाता है। लेकिन उन लोगों की संख्या बहुत कम है, जो यह सत्य पहचानकर इसके अनुसार जीना चाहते हैं। अगर हम टीवी देखते हैं या इंटरनेट पर कुछ पढ़ते हैं, या बुदापैश्त के एक अधिक भीड़ वाले भाग में टहलते हैं, तो हमें ऐसा लगता है कि लोग इस बात में अभी विश्वास नहीं करते । सभी जगहों पर अनुभव कर सकते हैं कि लोग सिर्फ अपने अपने काम में संलग्न हैं, उनके सपने बहुत बड़े हैं, जिन्हें मन लगाकर पूरा करने के लिए पागल हैं। जैसे एक टॉप कॉलेज में पढना उसके बाद एक उच्चकोटि का काम मिलना, सफल बनना, अमीर बनना। लेकिन इस का मतलब क्या है ज़िन्दगी में ? हम सभी मर जाते हैं और हम अपने पैसे से खुद को सुरक्षित नहीं कर पाते। ज़िन्दगी के मतलब के बारे में शायद मरने के आसपास ही सोचने लगते हैं, और जीवन के बहुमूल्य क्षण देते हैं।

इस नीतिवचन के सम्बन्ध में मुझे अलग-अलग उम्र के लोगों के अलग-अलग विचार मिले: उनमें से युवा लोग कहते हैं कि वे दूसरों की मदद नहीं करते क्योंकि इससे उस व्यक्ति की ओर से सिर्फ नुकसान आता है। एक और युवा ने बताया कि वो दूसरों कि चिंता बिलकुल नहीं करता, सब भट्टी में जा सकते हैं। एक मध्यम उम्र के आदमी ने लिखा कि वह मदद करना महत्त्वपूर्ण मानता है क्योंकि वह मदद किसी दूसरे रूप में वापस आती है, और शायद सिर्फ हमारा दृष्टिकोण गलत है।

हमारी इस समस्या के लिए एक समाधान है, यह है परमेश्वर। अगर हम अपना पूरा भरोसा उसमें लगाते हैं तो वे हमें दिखा देंगे हम आप-पास वाले लोगों से कैसे स्नेह कर सकते हैं। इसके बाद लोग अपनी इच्छा के अनुसार नहीं सोचेंगे, पर दूसरों की सहायता निःस्वार्थ भाव से करेंगे।

पवित्र बाइबल में हम यीशु जी के शब्द पढ़ सकते हैं:

"माँगो तो तुम्हें मिलेगा, ढूँढो तो तुम पाओगे, खटखटाओ, तो तुम्हारे लिए द्वार खोला जाएगा। क्योंकि जो कोई माँगता उसे मिलता है, और जो ढूँढ़ता है वह पाता है, और जो खटखटाता है उसी के लिए द्वार खोला जाता है। तुममें से ऐसा मनुष्य कौन है जो पुत्र के रोटी माँगने पर पत्थर दे? या मछली माँगने पर साँप दे? अतः जब तुम बड़े होकर अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएँ देना जानते हो तो तुम्हारे स्वर्गीय पिता भी माँगनेवालों को अच्छी वस्तुएँ क्यों नहीं देंगे? इस कारण जो कुछ तुम चाहते हो कि मनुष्य तुम्हारे साथ करें, तुम भी उनके साथ वैसा ही करो, क्योंकि व्यवस्था और भविष्यवक्ताओं की शिक्षा यही है"। (मत्ती ७:७-१२)



मैं "दयालु समारी का दृष्टान्त" की कहानी बताती हूँ-

एक मनुष्य यरूशलेम से यरीहो जा रहा था कि डाकुओं ने घेरकर उसके कपडे उतार लिए, और मार पीटकर उसे अधमरा छोड़कर चले गए। ऐसा हुआ कि उसी मार्ग से एक याचक जा रहा था, परन्तु उसने देखा और कतराकर चला गया। इसी रीति से एक लेवी उस जगह पर आया वह भी उसे देखकर कतराकर चला गया। परन्तु एक सामरी यात्री वहाँ आ निकला और उसे देख कर तरस खाया। उसने उनके पास आकर उसके घावों पर तेल और अंगूर रस ढालकर पट्टियाँ बाँधी और अपनी सवारी पर चढ़ाकर सराय में ले गया और उसकी सेवा टहल की। दूसरे दिन उसने दो दीनार निकालकर सराय के मालिक को दिए और कहा "इसकी सेवा टहल करना और जो कुछ तेरा और लगेगा, वह मैं लौटने पर तुझे दूँगा। अब तेरी समझ में जो डाकुओं से घिर गया था, इन तीनों में से उसका पड़ोसी कौन ठहरा? उसने कहा "वही जिस ने उस पर दया की। यीशु ने उससे कहा, "जा, तू भी ऐसा ही कर"। (लूका १०:३०-३७)

मैं और क्या कह सकती हूँ? सब कुछ बताया गया है। क्या तुम निस्वार्थ प्रेम महसूस करना चाहते हो? तुम हमेशा अपनी इच्छा देखकर दूसरों की सेवा कर सकते हो। परमेश्वर और उसके पवित्र पुत्र, ईसा मसीह की सहायता से।

"तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी शक्ति और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख और अपने पडोसी से अपने समान प्रेम रख।" (लूका १०:२७)

अगर तुम दूसरों को भी अपने सामन प्रेम करोगे। तुम दूसरों को जो दोगे वही तुम् वापस मिलेगा। दूसरों की सेवा का इंतज़ार मत करो। तुम्हें परमेश्वर से पारितोषिक दिया जाएगा।

(यह लेख भगवान की सेवा में समर्पित है।)

लोमड़ी ने पकड़ा मछली को, मछली ने पकड़ा लोमड़ी को

अनुवाद- साश ओर्शोल्या
प्रस्तावना

राजा मात्याश सच्चाई को बहुत महान मानते थे। इसीलिए उनका नाम भी प्रजा ने "न्यायसंगत मात्याश" रखा था। पर इसके साथ साथ मात्याश होशियारी, बुद्धिमानी और बहादुरी को भी महत्त्व देते थे। उनके राज्य में जो इमानदारी और बुद्धिमानी से मेहनत करके देश को आगे बढ़ाते थे उनको सम्मान ही मिलता था। जो अपनी बुद्धिमानी और ईमानदारी दिखाकर राजा को खुश करते थे, उनको थोड़ा ईनाम। जैसे इस चालाक मोची को।



१। (मोची बड़ा थैला उठाकर आ रहा है)

पत्नी: अरे जी, क्या ला रहे हैं आप?

मोची: सुनो, क्या हुआ! सुबह जैसे घर से निकला था तो झील के पास पहुँचकर मुझे एक लोमड़ी दिखी। लोमड़ी झील के किनारे मछली पकड़ने की कोशिश कर रही थी। कोशिश करते करते अंत में उसे एक मछली मिली और लोमड़ी ने अपने दाँतों से उसकी पूँछ कसकर पकड़ ली। पर मछली भी गरम मिजाज़ की थी। उसने भी अपना मुंह खोला और लोमड़ी की पूँछ अपने दाँतों में दबा ली। अब कोई भी एक दूसरे को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। तो मैंने दोनों को पकड़ लिया और थैली में डालकर घर लाया हूँ।

पत्नी: आप भी जी! इनको घर लेके भला क्या करोगे? इसके स्थान पर २-४ मछली पकड़के खाना लाये थे।।।

मोची: अरे तुम समझते ही नहीं। जब मैंने ये दोनों ऐसे चिपके हुए देखे तो बहुत हँसी आई। फिर मैंने सोचा मैं इनको बुदा लेकर राजा मात्याश को दिखा दूँग, उनको भी आनंद मिलेगा। देखो।

पत्नी: हा-हा, इनका हाल सचमुच हँसनेवाला है। ठीक सोचा जी, इनको महल में ले जाओ, हमारे राजा को आनंदित करो।



२। (बुदा का महल)



पहरेदार: रुको! तुम यह थैला लेकर कहाँ जा रहे हो इधर?

मोची: मैं राजा मात्याश के पास जा रहा हूँ। कुछ ला रहा हूँ दिखाने के लिए जिससे उनको बड़ा आनंद मिलेगा। देखो!

पहरेदार: हा-हा, तुम तो बहु मज़ाकिया आदमी हो। राजा मात्याश को ऐसे आदमी अच्छे लगते हैं। तुमको इसके लिए ईनाम ज़रूर मिलेगा।

मोची: ऐसा है तो बढ़िया है भाई साहब। फिर मुझे अन्दर जाने दीजिए।

पहरेदार: अरे, इतनी जल्दी नहीं। पहले थोड़ा ताल-मेल करें। अगर तुम वादा करते हो कि जो भी ईनाम मिलेगा तुम्हें उसका आधा हिस्सा मुझे दे दोगे तो मैं आगे जाने दूँगा।

मोची: चलिए, मैं वादा करता हूँ, सिर्फ अन्दर जाने दीजिए। (आगे चलता है)



पहरेदार २: रुको! तुम यह थैला लेकर कहाँ जा रहे हो इधर?

मोची: मैं राजा मात्याश के पास जा रहा हूँ। कुछ ला रहा हूँ दिखाने के लिए जिससे उनको बड़ा आनंद मिलेगा। देखो!

पहरेदार: हा-हा, तुम तो बहु मज़ाकिया आदमी हो। इसके लिए तुमको ईनाम ज़रूर मिलेगा। सुनो, मैं एक बात बताता हूँ। अगर तुम वादा करते हो कि जो भी ईनाम मिलेगा तुम्हें उसका आधा हिस्सा मुझे दे दोगे तो मैं तुम्हें आगे जाने दूंगा।

मोची: अरे, आधा हिस्सा इसके लिए, आधा हिस्सा दूसरे के लिए, तो मेरे लिए क्या रहेगा? चलो, कम से कम राजा मात्याश को तो खुश करूँगा एक बार। (पहरेदार से) ठीक है भाई साहब, मैं वादा करता हूँ। अब जाने दीजिए।



३। (मात्याश के सामने)



राजाः तुम क्या लाये हो मेरे लिए?

मोची (थैला खोलके): लोमड़ी पकड़ी मछली, मछली पकड़ी लोमड़ी, दोनों पकड़ी मोची।

राजाः हा-हा, तुम भी बड़ा मजेदार आदमी हो मोची! हमें बहुत प्रसन्न किया तुमने। इसके लिए हम तुमको सोने के सौ सिक्कों का ईनाम देते हैं।

मोची: राजा जी, आप बहुत दयालु हैं, पर मुझे इसकी जगह कोई दूसरा ईनाम देने की कृपा कीजिए।

राजाः अच्छा? तो बताओ, तुमको सोने की जगह क्या चाहिए?

मोची: राजा जी, मैं १०० सिक्कों की जगह आपसे सौ कोड़े माँग रहा हूँ।

राजाः अजीब प्रार्थना है सच में। पर लग रहा है आपका मज़ाक अभी तक ख़त्म नहीं हुआ। चलो, फिर तुमको तुम्हारा पसंदीदा ईनाम मिल जाएगा। ले जाओ इसे!

(मोची को लेकर सब बाहर जा रहे हैं)



पहरेदार २ (मोची के कान में फुसफुसाकर): अरे मोची! तुम्हारे ईनाम का आधा हिस्सा कहाँ है?

मोची (ज़ोर से): साथ आओ! हिस्सा मिल जाएगा।

पहरेदार १ (मोची के कान में फुसफुसाकर): अरे मोची! तुम्हारे ईनाम का आधा हिस्सा कहाँ है?

मोची (ज़ोर से): साथ आओ! हिस्सा मिल जाएगा।

राजा: ज़रा रुको! अब तो इस चालक मोची का दूसरा मज़ाक भी समझ में आ गया! इन दोनों बेईमान पहरेदारों को आगे ले जाओ! उनको ईमान का अपना-अपना हिस्सा मिल जाएगा, ५०-५० कोड़े। और होशियार मोची को दोगुना मज़ाक के लिए दोगुना ईनाम दिया जाए, सोने के २०० सिक्के! सब को दिखाया जाए कि हमारे राज्य में बेईमानी कि सज़ा और ईमानदारी का सम्मान ज़रूर मिल जाएगा।

हंगरी की नई सजा - लाल कीचड़

रीता जुली शिमोन

अगर कोई विदेशी हंगरी की आजवाली घटनाएँ देखता है तो उसको पूरी तरह पता नहीं चलता है इसका क्या महत्त्व है।

हम हंगेरियन लोग जानते हैं कि इतिहास में हंगरी की भूमिका कैसी थी: यह एक ऐसा देश था जिसका भाई-चारा योरोप में प्रसिद्ध था। पता नहीं फिर भी युद्धों में इसे असफलता ही हाथ लगी।

अब, २०१० अक्तूबर में भी हंगरी वासी इसी प्रकार का भाव महसूस कर सकते हैं।

अयका नामक एक हंगेरियन शहर की एक फैक्टरी का उपउत्पाद्य तो इसका दोषी है।

एक दिन फैक्टरी का बाँध टूट गया। उस में जो रासायनिक लाल पदार्थ था वह आसपास के गावों में फैल गया और वहाँ रहने वालों को बेघर कर दिया।

यह इतनी जल्दी हुआ कि सोचने तक के लिए समय भी नहीं मिला। अब तक मारे गए लोगों की संख्या नौ है: जानवरों की संख्या के बारे में मत सोचिये। सारे देश को आश्चर्य हुआ। सब लोग एकाजुट होकर सहायता करने लगे। बड़े शहरों में कई समूहों ने मदद की व्यवस्था शुरू की। दूसरे लोगों ने फोन करके या एसएमएस भेजते हुए पैसे दिए।

ईश्वर की कृपा से हमारे राष्ट्र के लोगों के मन होश में हैं। उन्होंने सिर्फ अपनी ज़िन्दगी की चिंता करना रोक दिया। कारण यह है कि पदार्थ प्राणीजगत और वनस्पति जगत की सभी चीजों के लिए खतरनाक है।

उसका पीएच गणनांक क्षारित है और इसको ठीक करने के लिए वैज्ञानिक अम्ल का प्रयोग करते हैं। यह नदियों में बहकर देश की किसी भी जगह पहुँच सकता है और सब कुछ नष्ट कर सकता है।

एक किसान ने एक नए प्राकृतिक पर प्रभावशाली तरीके के बारे में समझाया है जो सब क्षेत्रों के फलदायक खेतों का बचाव कर सकता है। इसके साथ-साथ उसने आशा कि रौशनी भी दिखाई। हमेशा आशा पर विश्वास करना चाहिए जो कि हम हंगेरियन लोगों को आम तौर पर नहीं आता। कारण अलग-अलग होते हैं। भाई-चारा या भरोसे की कमी, लापरवाही, सोचने का तरीका आदि-आदि।

इस समय हम सकते हैं कि हंगरी ने शक्ति और मन लगाते हुए काम किया। यह बहुत ही ख़ुशी और गर्व की बात है।

भारत का पवित्र भूगोल

सुच वैरोनिका

हिन्दू धार्मिक परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण कल्पना है, कि ज़मीन यानि पृथ्वी और देश अर्थात भारत खुद देवी-देवता हैं। उनका लोग माता के समान आदर करते हैं। भारत, भारत माता के नाम से पूज्य है। पृथ्वी और देश की सेवा, देश की सेवा है और इनके लिए फूलों के बजाय भक्तों की शहादत का प्रस्ताव किया जाता है।

स्वतन्त्र भारत में मातृभूमि के देवी होने की कल्पना आज तक चली आ रही है। भारत के राष्ट्रगान में, जो रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखा और गीतबद्ध किया गया था, यही वातावरण दिखाई देता हैं। यह गीत सब से पहले १९११ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सम्मेलन के अवसर पर कोलकाता में गाया गया था, और १९५० में भारत का राष्ट्रगान हुआ। जन गण मन किंग जोर्ज के राजतिलक दरबार के लिए लिखा गया था, इसलिए समकालीन समाचारों ने विचार-विमर्श के साथ इसका स्वागत किया। राजनिष्ठ लोगों की नज़र में ठाकुर ने इस गान में अंग्रेज़ी अधिकारों की स्तुति की है, राष्ट्रवादी गाकर कृष्ण भगवान की प्रशंसा करते हैं। दोनों पक्ष अपनी बात साबित करने के लिए गान की उन्ही पंक्तियों का हवाला देते हैं। उनका एक अर्थ है, कि सिंहासन पर बेठा भारत-भाग्य-विधाता, जो अपनी माता के साथ भारत को स्वप्न से जगाता है किंग जोर्ज है और माता अंग्रेजों की महारानी, मेरी हैं। दूसरा अर्थ है, कि शंख बजाने वाला सारथी शायद अंग्रेजों के प्रति विरोध की प्रेरणा देते हुए कृष्ण हैं। माता, जो जन गण को गोद में लेती है, इस बार कोई देवी, संभवतः भारत माता होना चाहिए। मेरी राय में गान में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की योग्यता विशेष प्रकार से दिखाई देती है। उन्होंने कविता समझ-बूझकर ऐसा लिखा है, कि उससे दोनों पक्ष संतुष्ट होते हैं। १९११ में भारत और अंग्रेजों का सम्बन्ध राजनीति का मर्म-स्थल था। यद्यपि ठाकुर स्वतंत्रता आन्दोलन का समर्थन करते थे, जब उच्च दरबार ने उनका इस अवसर पर गीत लिखने का अनुरोध किया, उन्होंने ऐसा गान लिखा, जो अंग्रेजों को भी पसंद है। बहुत उपदेशपूर्ण है, कि ठाकुर ने इस विवाद पर सिर्फ २६ वर्ष बाद उत्तर दिया, जब भारत की ग्रेट ब्रिटेन से अधीनता कम हो रही थी। १९३९ में कवि ने ज़ोर से इनकार किया, कि जन गण मन और किंग जोर्ज के बीच सम्बन्ध की कोई संभावना है।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर का राष्ट्रीय गान का वातावरण और आम भावना बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा रचित राष्ट्रीय गीत, वन्देमातरम् के ही समान है। यह गीत भारत माता की संकल्पना की पहली और आज तक की शायद सबसे लोकप्रिय अभिव्यक्ति है। चटर्जी का उपन्यास, आनंद मठ १८८२ में लिखा गया, जब भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन सशक्त होने लगा। निबंध की कथावस्तु का क्षेत्र बंगाल हैं, जहाँ हिन्दू सैन्यवादी संन्यासी और मुसलमान बादशाहों और उनकी अंग्रेज़ी संधियों के बीच झगड़ा उठता है। सन्यासी अपने आप को बच्चे बुलाते हैं और उनकी युद्ध की पुकार वन्दे मातरम् है। बच्चों ने कसम खाई, कि वे अपने परिवारों का भी त्याग करते हैं, जब तक माता स्वतन्त्र नहीं है। निबंध के नायक का कहना है, कि "हमारी जन्मभूमि हमारी माता हैं।" यह कल्पना स्पष्ट करने के लिए नायक वन्दे मातरम् गीत गाने लगता है:



"वन्दे मातरम् सुजलां सुफलां

मलयजशीतलाम् सस्य श्यामलां मातरम्।"

इसमें भारत देश का आदर देवी के रूप में किया किया जाता है। बनारस में भारत माता का एक मंदिर है, जो इस भावना का प्रकटीकरण है, उसे देखकर भारत माता की कल्पना स्पष्ट होती है। दिअना एल ऐक की बनारस: सिटी ऑफ़ लाईट शीर्षक किताब में पढ़ा जा सकता है, कि मंदिर के गर्भगृह में देवी की मूर्ति के बजाय भारत देश का नक्शा प्रस्तुत है। भक्त उसकी पूजा करते हैं।

चटर्जी के गीत में भारत माता फसल के खेतों के कारण गेंहुए रंग की हैं, उनकी मुस्कान चाँदी, चन्द्रमा है। मगर ये विशेष गुण न सिर्फ अलंकार के रूप में लिखे गए हैं, देवी का शरीर दरअसल भारत देश की ज़मीन है। देवी प्रकृति या विश्व के बराबर हैं। यह कल्पना अक्सर ऐसे ही प्रकट की जाती है कि उनके शरीर के अंग पृथ्वी के अलग-अलग हिस्से हैं। देवी भागवत पुराण में लिखा है, कि पर्वत देवी की हड्डियाँ हैं, जैसे नदियाँ उनकी नसें, पेड़ उनके बाल, सूर्य और चाँद उनकी आँखें हैं। एक शिलालेख में पढ़ा जा सकता है, कि कुमारगुप्त ने पूरी पृथ्वी पर शासन किया, जिसके स्तन सुमेरु और कैलास पर्वत हैं।

इस भारत-देवी संकल्पना की दूसरी जड़ तीर्थों में हैं। भारत पवित्र स्थानों से पूर्ण है: पर्वतों, चट्टानों, गुफाओं, नदियों ओर तालाबों की अक्सर ख़ास शक्ति है, जो किसी देवी-देवता से सम्बंधित नहीं है। वे अपने आप में पवित्र हैं, और अगर इन जगहों पर मंदिर भी बनवाये गये, वह सिर्फ इनकी पवित्रता पर निशान लगाने के लिए स्थापित हैं। खुद मंदिर इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितनी की उसकी भौगोलिक स्थिति। अगर हम भारत का एक ऐसा नक्शा ध्यान से देखते हैं, जिस पर पवित्र जगहें दिखाई देती हैं, तो यह समझ में आ जाता है। भारत के समाज की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक एकता पुरानी कथाओं, जन-श्रुतियों और इतिहास से सम्बंधित पवित्र स्थानों द्वारा दृढ़ की गयी है। भारत के इस "ज़िंदा भूगोल" ने भी भारत माता संकल्पना को जन्म दिया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के जन गण मन में यह भौगोलिक पवित्रता स्पष्ट होती है, विशेषकर जब गंगा और यमुना का ज़िक्र किया जाता है। भारत माता की कल्पना आज तक बहुत ही लोकप्रिय हैं, आम लोगों और राजनीति में भी। भारत में सब लोग उसके आकार से अच्छी तरह से परिचित है, जिसका सब से पहला आधुनिक चित्रण अवनींद्र नाथ टैगोर ने किया है। वे आम तौर पर केसरी साड़ी या तिरंगा पहने और हाथ में झंडा लेकर चित्रित होती हैं। बगल में सिंह या शेर दिखाई देता है, जो दुर्गा देवी का वाहन है, जैसे चटर्जी के निबंध में भी भारत माता और

दुर्गा हमेशा एक जैसी हैं।

सब से अहम् बात है, कि इसी तस्वीरों पर भारत माता आम तौर पर भारत के नक़्शे पर खड़ी है, जो देवी और देश की एकता पर विशेष रूप से ज़ोर देता है। मैं दिखाना चाहती थी, कि इस कल्पना के पृष्ठभूमि में न सिर्फ देव-देवताओं की कथाएँ अहम् है, बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं और राजनीति द्वारा प्रेरित साहित्य की भी बड़ी भूमिका है। उन्हीं रूपों में भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का गौरव, साहित्यकारों और कलाकारों का योगदान भारत की उस कल्पना से मिलता है, कि भूमि न सिर्फ निर्जीव प्रकृति, बल्कि प्राण से व्यथित पवित्र जगह है। जब मैंने शीर्षक में "पवित्र भूगोल" लिखा है, मैंने यह सोचा, कि राजनीतिक हदों से सीमित देश, धार्मिक सम्मान से पूज्य ज़मीन और भारतीय लोगों की सामूहिक चेतना एक पवित्तर रूप, भारत माता में संयुक्त है।

मेपल से छोटी बाँसुरी

अनुवाद- अन्ना शिमोन

इस दुनिया में एक राजा था और उसकी तीन बेटियाँ थीं। एक बार उसने उन्हें जंगल में हिसालू इकट्ठे करने के लिए भेजा। उसने उनसे कहा: जो सबसे जल्दी से अपनी टोकरी पूरी भरेगी, उसके लिए वह सबसे सुन्दर कपड़े खरीदेगा।

वैसे सबसे छोटी बेटी मेहनती थी। उसने जल्दी से अपनी टोकरी पूरी भर ली। दूसरी दो बड़ी बेटियों ने चुटकी भर इकट्ठी कीं और वे अपना समय कुछ अलग करके बिताने लगीं। जब उन्होंने देखा, कि उनकी बहन प्रतियोगिता में विजयी हो गयी, तो उन्हें उससे इर्ष्या होने लगी। सबसे बड़ी बेटी ने बीचवाली बेटी से कहा:

-‘हमारे पिता जी क्या कहेंगे, जब वे देखेंगे, कि हमने कितनी कम इकट्ठी कीं’? हमारी बहन ने अपनी टोकरी पूरी भर ली। वे हम से पूछेंगे, कि हम क्या कर रही थीं? तो हम क्या कहेंगी? सज़ा से बचने के लिए हमें अपनी बहन को मार डालना चाहिए। हम घर पर कहेंगे कि वह जंगल में गायब हो गयी। हम उसे बहुत देर तक खोज रही थीं। इस लिए हम अपनी टोकरियों को पूरी नहीं भर सकीं। इसलिए हम देर से घर पहुँचीं।

बीचवाली बेटी उससे सहमत नहीं थी। लेकिन सबसे बड़ी ने तो बेचारी सबसे छोटी को मार डाला। इसके बाद उसने दफन कर दिया। घर पर उन्होंने अपने पिता जी से झूठ बोला, कि उनकी छोटी बहन जंगल में गायब हो गयी। वे उसको सब जगह खोजते रहे, पर वह नहीं मिली। वे बहुत देर तक खोजने के कारण काफ़ी हिसालू जमा नहीं कर सकीं। रात होने पर वे भी बहुत मुश्किल से पहुँच सकीं।

राजा को अपनी छोटी बेटी के लिए बहुत अफ़सोस हुआ, वह शोक से रोने लगा। वह उसकी बेटियों में से सबसे अच्छी थी।

वहाँ दूर जंगल में बेचारी सबसे छोटी राजकुमारी की कब्र से एक छोटा मेपल फूट निकल और बड़ा हो गया। वसंत में चरवाहा उस जगह पर अपने पशु चरा रहा था। एक बार जब वह छोटे मेपल की ओर गया, उसके दिमाग में कुछ आया। उसने पेड़ से एक डाली काट ली। उसने उससे बाँसुरी बनायी। उसने उसे बजाया। पर बाँसुरी से सिर्फ़ यह धुन निकली:

"बजाओ, बजाओ चरवाहे!

मैं भी छोटी राजकुमारी थी,

राजकुमारी से छोटा मेपल,

मेपल से छोटा बाँसुरी।"

एक बार राजा भी अपने आप उधर गया। उसने बाँसुरी कि धुन सुनी। वह हमेशा अपनी छोटी बेटी के बारे में सोचता रहता था। अब उसे अपनी छोटी बेटी का रहस्यमय ढंग से गायब हो जाना याद आया। उसने चरवाहे से पूछा, कि उसने बाँसुरी कहाँ से खरीदी।

चरवाहे ने उत्तर दिया:

- मैंने इसको यहाँ जंगल में काटा।

राजा ने कुछ सोचा:

- मुझे यह बाँसुरी दे दो।

चरवाहे ने बाँसुरी दे दी। राजा ने उसको मुँह पर रख लिया और बजाया। बाँसुरी बोली:

"बजाइए, बजाइए मेरे राजा पिता जी !

मैं भी छोटी राजकुमारी थी,

राजकुमारी से छोटा मेपल,

मेपल से छोटा बाँसुरी।"

राजा ने उसी क्षण चरवाहे से बाँसुरी खरीद ली। वह उसे घर ले गया, और अपनी पत्नी को बजाने के लिए दी। जब रानी ने बजाया, बाँसुरी बोली:

"बजाइए, बजाइए रानी माता जी!

मैं भी छोटी राजकुमारी थी,

राजकुमारी से छोटा मेपल,

मेपल से छोटा बाँसुरी।"

वे दोनों बाँसुरी की बात सुनते है। रानी बहुत लम्बे समय से यह विश्वास करती थी, कि उसकी बेटियाँ अपनी छोटी बहन की कहानी के बारे में उससे अधिक जानते है, जितना बताती हैं। उसने उनको बुलाया। उनके सम्मिलित होते ही, रानी अपनी छोटी बेटी को बजाने के लिए बाँसुरी दे देती है। बाँसुरी उसी क्षण शुरू करती:

"बजाओ, बजाओ मेरी बड़ी बहन !

मैं भी छोटी राजकुमारी थी,

राजकुमारी से छोटा मेपल,

मेपल से छोटा बाँसुरी।"

- अब तुम बजाओ-रानी ने अपनी बड़ी बेटी से कहा। वह तो बजाना नहीं चाहती थी। पर वह बच नहीं सकी। उसके हाथ में बाँसुरी रख दी गयी। उसे बजाना पड़ा। उसके बजाते ही, बाँसुरी ने शुरू किया:

"बजाओ, बजाओ, मेरी हत्यारिन!

मैं भी छोटी राजकुमारी थी,

राजकुमारी से छोटा मेपल,

मेपल से छोटा बाँसुरी।"

ख़राब बहन ने अपने हाथ से बाँसुरी छोड़ दी। इसके बाद वह घुटने पर गिर गयी, अपने पाप के लिए खेद व्यक्त किया और माफी माँगा। पर राजा ने तुरंत उसे अपने घर से, राजधानी से, पूरे देश से बाहर निकाल दिया। अगर वह वापस आएगी, उसका सिर काटा जाएगा। उसने जंगल में बड़े हुए पेड़ बहुत ध्यान से खुदवाकर बाहर निकालवाया और अपने खिड़की के नीचे लगवा लिया।

यानिकोव्सकी एव: अगर मैं बड़ा होता …,

अनुवाद- फेहैर ओलिविया



सब बच्चे जानते हैं, छोटे से छोटा भी,

कि शरारती होना अच्छा होने से

ज्यादा मजेदार होता है।



हमेशा शिष्ट व्यवहार करना भयानक रूप से उबाऊ,

साथ-साथ थकाऊ भी होता है



अगर तुम लम्बे समय तक एक कुर्सी पर स्थिर बैठे रहते हो

तो तुम्हारे पैर सुन्न हो जाएँगे।

अगर तुम चाकू और कांटे से खाना खाने की कोशिश करते हो तो मांस तुम्हारी थाली से बाहर उड़ जाएगा।

अगर तुम अपने हाथों को धो कर पूरी तरह से साफ़ कर पाते हो,

तुम्हारे तैयार होने से पहले ही, दूसरे लोग मेज़ पर बैठ चुके होंगे।





बड़े हमेशा ऐसा ही कहते हैं कि:



अच्छे बनो!

यह भी कि

बुरे मत बनो!

और यह भी कि आज्ञाकारी बनो!

और यह भी कि

ठीक से व्यवहार करो!





उनका यह कहना तो आसान है, क्योंकि बड़े व्यर्थ ही कहते हैं कि:

खुश रहो, जब तक तुम एक बच्चे हो!

सब बच्चे जानते हैं, छोटे से छोटा भी, कि

बड़ा होना ज़्यादा बेहतर है!

कोई भी बड़ा वे कपड़े पहनता है, जो उसके दिमाग में आते हैं,

अगर वह दमकल गाड़ी का सायरन सुनता है, वह आराम से खिड़की से बाहर निकल झाँक सकता है,

कोई बात नहीं कितना भी पसीने से लथपथ हो, वह हमेशा पानी पी सकता है,

वह उतने हलके स्वर में अभिवादन कर सकता है जितना चुपचाप वह चाहता है,

और उसको सोने जाना नहीं पड़ता है जब टीवी सब से मनोरंजक होता है।



लेकिन यह इतना ही नहीं है!



बड़ा हमेशा वही करता है जो उसका जी चाहता है, पर बच्चे को वह करना पड़ता है जो बड़े का जी चाहता है।

बड़े हमेशा बच्चों से जोर से कहते हैं:



अपना स्वेटर पहनो!

अपने हाथ धोओ!

अपने नाखून मत चबाओ!

अपने पैरों के आगे देखो!

अपने खिलौने सही जगह रखो!



और अगर बच्चा कहना नहीं मानता, तो नतीजा होता है कि:



मुझे कितनी बार तुम्हें हाथ धोने के लिए कहना चाहिए? मेज़ पर ऐसे ही नहीं बैठ सकते!

मुझे कितनी बार तुम्हें स्वेटर पहनने के लिए कहना चाहिए? क्या तुम चाहते हो सर्दी लग जाए?

मुझे कितनी बार तुम्हें आगे देखने के लिए कहना चाहिए? ऐसे तुम नाक के बल गिर जाओगे!

मुझे कितनी बार तुम्हें नाखून न चबाने के लिए कहना चाहिए? यह देखने में भी बुरा है!

मुझे कितनी बार तुम्हें खिलौने सही जगह पर रखने के लिए कहना चाहिए? क्या मैं हमेशा तुम्हारे खिलौने ठीक जगह रखूँ?



और अगर बच्चा फिर भी नहीं मानता, तो नतीजा होता है कि:





बताओ, मेरे प्यारे बेटे और कितनी बार मुझे कहना होगा कि:



अपना स्वेटर पहनो!

अपने हाथ धोओ!

अपने नाखून मत चबाओ!

अपने पैरों के आगे देखो!

अपने खिलौने सही जगह पर रखो!



कितनी बार कहना होगा? कितनी बार ? कितनी बार ? कितनी बार ?





और बड़े ऐसा इतनी बार दोहराते हैं कि







अंत में बच्चा मान ही जाता है,



और अपने हाथ धोता है,

और अपना स्वेटर पहनता है,

और अपने आगे देखता है,

और अपने नाखून नहीं चबाता,

और अपने खिलौने सही जगह पर रखता है,

और तो, अंत में बड़े खुश हो जाते है।



बड़े ऐसे भी होते हैं,

जो इतने खुश होते हैं कि वे मुस्कुराते हैं और कहते हैं कि:

देखो, मेरे बेटे, तुम अच्छा भी बन सकते हो!

लेकिन ऐसे बड़े भी होते हैं,

जो तब भी सिर्फ अपना सिर हिलाते हैं जब वे अंततः खुश हो जाते हैं, और कहते हैं कि:

बताओ, मेरे बेटे, क्या तुम तुरंत ही आज्ञापालन नहीं कर सकते थे?



मुझे नहीं पता ऐसा क्यों होता है कि बड़े सचमुच सिर्फ तभी खुश होते हैं जब बच्चा ठीक से व्यवहार करता है।

इसमें क्या खुशी है?



मैं एक बहुत ही अलग बड़ा होता और मैं सब कुछ करके खुश हुआ करता।

सबसे पहले यह सराहता, कि मैं वह कर सकता हूँ जो मैं करना चाहता हूँ।



अगर मैं बड़ा होता, तो

मैं कुर्सी पर कभी नहीं बैठता, लेकिन मैं हमेशा घुटनों पर बैठता

मैं अपने सफ़ेद दस्तानों वाले हाथों से लोहे के पूरे बाड़े पर प्यार से हाथ फिराता,

मैं दांत साफ करने के गिलास में खजूर फल के बीज अंकुरित करता,

मैं हर भोजन से पहले चॉकलेट की एक-एक बड़ी पट्टी खाता,

और मैं शायद अपने हाथों से मक्खियाँ पकड़ता।

स्वाभाविक रूप से, सिर्फ अगर मैं इससे पहले मक्खियाँ पकड़ना सीख गया होता।



अगर मैं बड़ा होता, तो

मैं हमेशा खेलों के जूते पहनता,

मैं सूप के बाद हमेशा दो गिलास पानी पीता,

मैं सड़कों पर उल्टा चलता,

मैं सभी भटकी बिल्लियों को दुलार करता,

और शायद, इतनी जोर से सीटी बजाता ताकि सभी मुझ पर नज़र रखें और मुझसे डर जाएँ,

स्वाभाविक रूप से, सिर्फ अगर मैं इससे पहले दो उंगलियों से सीटी बजाना सीख गया होता।



अगर मैं बड़ा होता, तो

मैं हमेशा कुर्सी पर अपने पैर हिलाता, जब में एक अतिथि होता,

मैं अपनी नाक कभी साफ नहीं करता, लेकिन मैं सिर्फ सूँघता रहता,

मैं अपने गंदे पैर दरवाजे के पहले कभी नहीं साफ करता,

मैं घर में एक असली जिराफ रखता, जो मेरे बिस्तर के सामने सोता,

और मैं शायद सब परिवारों के घरों के फाटकों की घंटी दबाता,

स्वाभाविक रूप से, सिर्फ अगर मुझे कुत्तों से डर लगना खत्म हो चुका होता।



अगर मैं बड़ा होता, तो मैं शादी करता, मैं उस लड़की से शादी करता,

जो हालांकि मेंढक देखकर चिल्लाती लेकिन उस से "घृणित" और "चीं" नहीं कहती,

जो साबुन के ऐसे बुलबुले उड़ा सकती, जो कभी नहीं फटते,

जो डर तो जाती लेकिन नाराज़ नहीं होती, जब मैं उसके कान के पास एक कागज़ के बेग का पटाका बजाता,

और जो मेरी पतंग की डोर अच्छी तरह से बाँध सकती।



मैं और वह लड़की, जिससे मैं शादी करता,

हम फर्श पर अपने हाथों-पैरों पर रेंगते, जितना हमें अच्छा लगता है,

और इस बीच हम कागज़ की तुरही इतनी जोर बजाते, जितनी जोर से हम बजा सकते।

हम दोनों बड़े होते, इस प्रकार कोई भी हमें फटकार नहीं सकता, कि

"यह बंद करो, क्योंकि मैं पागल हुआ जा रहा हूँ"।



अगर मैं बड़ा होता, तो मैं शादी करता, मैं एक ऐसे घर में रहता

जहाँ मैं कमरे में गेंद खेल सकता,

जहाँ मैं गमलों में बलूत के पौधे लगा सकता,

जहाँ मैं स्नानघर में ज़र्द मछली रख सकता,

मुझे कभी कुछ भी कचरे में नहीं फेंकना पड़ता, क्योंकि सब चीज़ों को, जिन्हें मैं घर लाता, जगह मिलती,

जैसे एक गिरा होर्सचेस्टनट,

या एक जंग लगी लोहे की कील,

या एक गाँठों वाली रस्सी,

या एक फेंका हुआ ट्राम का टिकेट,

या एक छोटा, बीमार साही।



उस घर में, जहाँ हम रहते, हमारे पड़ोसी सिर्फ ऐसे ही आदमी और औरतें होते,

जो हमें अपनी कनारी छूने देते,

जो हमें ताज़ा पकाए केक के किनारे खिलाते,

जो हमें दुकान से कुछ खरीदने के लिए भेजते, और हम को रंग-बिरंगे कागज़ देते,

और जो मुस्कराकर हमें प्रोत्साहित करते, यदि हम उनकी खिड़की के नीचे फुटबॉल खेलते।



अगर मैं बड़ा होता, शादी करता, मेरे बहुत बच्चे होते,

क्योंकि मुझे वे खेल खेलना पसंद है, जिनमें बहुत बच्चों की ज़रूरत होती है।

मैं उन बहुत बच्चों का पिता होता, और वह लड़की, जिससे मैं शादी करता, उनकी माता होती।



मैं और वह लड़की, जिससे मैं शादी करता, और हमारे बच्चे पूरे दिन सिर्फ खेल खेलते रहते!

"पकड़म-पकड़ाई", "आइस पाईस", "आँख-मिचौनी" जैसे खेल खेलते।

जब हमारे और अधिक बच्चे होते तो

हम दौड़, लंबी छलांग, टॉस और रोलर की प्रतियोगिताएँ भी आयोजित करते।



मैं हमेशा जीतता और तो बच्चे अपने पिता पर गर्व कर सकते।



हमारे बच्चे कभी गुप्तचरी नहीं करते,

कभी नहीं लड़ते,

कभी नहीं रोते,

और वे हमारे खिलौने कभी नहीं ले लेते,

क्योंकि मुझे गुप्तचरी करने वाले, लड़ने वाले और रोने वाले बच्चे पसंद नहीं हैं,

जो हमेशा अन्य लोगों के खिलौने ले लेना चाहते हैं।



हमारे बच्चे इतना बुरे तरह से व्यवहार कर सकते, जितना मैं और यह लड़की,

जिससे मैं शादी करता,

लेकिन इससे अधिक नहीं क्योंकि यह निष्पक्ष नहीं होता।



हम सब कुर्सी पर अपने पैर हिलाते जब हम अतिथि होते,

हम भोजन से पहले एक दूसरे को चॉकलेट की बड़ी पट्टियाँ देते,

हम सब सड़कों पर पीछे की ओर चलते,

और हम सब भटकी बिल्लियों को दुलार सकते,

स्वाभाविक रूप से, सिर्फ लाइन में, बारी-बारी से ।



वसंत में, सब बच्चों को समान रूप से गुब्बारे मिलते,

लेकिन मेरा थोड़ा अधिक बड़ा होता,

क्योंकि मैं उनके पिता होता।

गर्मियों में, मैं सब बच्चे के लिए समान रूप से बड़ी आइसक्रीम खरीदता,

मैं तो सिर्फ खुद के लिए थोड़ी अधिक खरीदता,

क्योंकि मैं उनके पिता होता।

पतझड़ में सब बच्चे बारिश की गड्ढों में छपाक कर सकते,

लेकिन मैं तो सब से गहरे में चलता,

क्योंकि मैं उनके पिता होता।

सर्दियों में सब बच्चे हिम पहाड़ियों पर चढ़ सकते,

लेकिन मैं तो सब से ऊँची पर चढ़ता,

क्योंकि मैं उनके पिता होता।



यह ऐसे ही निष्पक्ष है, क्योंकि

अगर उन्हें सब से बड़ा गुब्बारा मिलता,

अगर उन्हें अधिक आइसक्रीम मिलती,

अगर वे सब से गहरे बारिश के गड्ढे में चल सकते,

तो मेरे लिए बड़ा होने में क्या खुशी होती?



काश मैं बड़ा होता!!!

लेकिन मैं अभी छोटा हूँ,

और मुझे बड़ा होने के लिए

बहुत ज्यादा बढ़ना चाहिए।



और जब तक मैं बहुत ज्यादा नहीं बढ़ता,

मुझे आज्ञाकारी होना पड़ेगा,

मुझे अपने हाथ धोना पड़ेंगे,

मुझे अपना स्वेटर पहनना पड़ेगा,

मुझे अपने पैरों के आगे देखना पड़ेगा,

मुझे अपने नाखून नहीं चबाने होंगे,

मुझे अपने खिलौने सही जगह पर रखने पड़ेंगे।

दूसरी चीजों के बारे में बात न की जाए,

क्योंकि इनके अलावा भी बहुत अधिक हैं।



अगर मैं बड़ा होता तो

मैं गंदे हाथ लिए मेज़ पर बैठता

और मैं हमेशा छोटी बाज़ू की टीशर्ट पहनता,

और मैं अपने पैरों के आगे नहीं देखता, बल्कि मैं नाक के बल गिरता,

और मैं अपने हर नाख़ून को हर तरह से चबाता,

और मैं अपने खिलौने बिखेरे रखता।

दूसरी चीजों के बारे में बात न की जाए,

क्योंकि इनके अलावा भी बहुत अधिक हैं।



क्या अच्छा होता अगर मैं बड़ा होता!

मैं सिर्फ एक बात नहीं समझता ।

मेरी माता जी और मेरे पिता जी भी और बड़े होते।

फिर भी वे क्यों अपने हाथ धोते हैं?

फिर भी वे क्यों अपना स्वेटर पहनते हैं?

फिर भी वे क्यों अपने पैरों के आगे देखते हैं?

फिर भी वे क्यों अपने नाखून नहीं चबाते?

फिर भी वे क्यों अपनी चीज़ें उनकी अपनी जगह पर नहीं रखते?



मैं एक बार उन से यह पूछूँगा!