शनिवार, 1 मई 2010

नारंगी बादल

कोस्तोलानी दैज़ू-- (अनु.आशीष रस्तोगी)--

सड़क पर चला जा रहा हूँ। एक नारंगी बादल पर मेरा ध्यान जाता है जो कि सर्दी के नीले, क्रिस्टल से पारदर्शी आकाश में अकेला ही तैर रहा है। दोपहर के तीन बजे हैं। खुशी, मुझे मदहोश और बेहोशी की स्थिति में जकड़ सी लेती है, मुझे रुकना पड़ता है, एक दीवार का सहारा लेता हूँ कि कहीं चक्कर खाके गिर न जाऊँ।

~ये क्या है?! मैं चीख़ पड़ता हूँ। इस नारंगी बादल से सुंदर तो मैंने कभी कुछ देखा ही न था। प्रफुल्लताभरा उत्साह मुझपर अचानक, चतुराई से प्रहार करता है, जैसे कि कोई गैस का प्रहार।

मैं यह तक नहीं जानता कि कहाँ से। सिर्फ इस बात का अहसास रह जाता है कि जीना कितना सुखद है, खासकर सर्दी के इतने पारदर्शी दिनों में जब लाल कोहरे के छँटने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, जब सब पर एक रहस्य का आवरण सा छाया रहता है, काले आकाश से धीरे धीरे बर्फ़ गिरने लगती है, दूर कहीं बत्तियाँ जल रही हैं, स्लेज की घंटी बज रही है। वाह! यह कैसा, आशा और आकर्षण चारों ओर से मेरी ओर बहता चला आ रहा है। ऐसा लगता है, वास्तविक सुन्दरता मेरे आगे है, न कि पीछे। धड़कते दिल से, उत्साहित, पूरी आशा के साथ मैं नारंगी बादल की समीक्षा करता हूँ। वह जो रोशनी के गुच्छे के साथ हवा में तैरता चला जा रहा है। सोचता हूँ कि कहाँ देखा मैंने इसे, किस दृश्य में, किसी सपने में या फिर सजे हुए किसी मंच पर, रंगीली बत्तियों में चतुराई और किसी असंभव से रूप में चमचमाता हुआ।

अब मुझे सब याद आ गया है। इस नारंगी बादल से, मैं एक बार पहले मिल चुका हूँ। बहुत पुरानी बात है, शायद कई दशक पहले, जब मैं तीन बरस का रहा हूँगा या ज़्यादा से ज़्यादा चार का। दोपहर भोजन के बाद सुनहरे बटन वाला कोट पहना, सर पर फर की टोपी डाल, मेरे गले में पीली धारी वाला काला मखमली मफलर लपेटकर, मुझे आया के साथ चचेरे भाई के घर भेजा गया था। तब भी ऐसा ही आसमान था, ऐसा ही बादल था और ऐसी ही रोशनी थी। बस एक पल के लिये ही मैं यह सब देख पाया था क्योंकि हम लोगों के घर पास-पास ही थे। न ही आसमान की ओर, न बादल की ओर और न ही रोशनी की ओर ही मेरा ध्यान जा पाया था। लेकिन अब मुझे सब याद आ गया है। अब मुझे वह दिन भी याद आ रहा है, जिस दिन के बारे में मैंने अब तक कभी न सोचा था, किंतु इस पल मुझे अहसास हो रहा है कि वह मेरी ज़िन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण दिन था। मुझे याद आ रहा है कैसे मेरा कोट उतारा गया, कैसे मुझे बहुत ही गर्म घर में ले गये। इससे पहले कि बच्चे खेलना शुरू करते मैं और मेरा चचेरा भाई कैसे निरीह और उलझन में खड़े थे। मुझे याद आ रहा है कि क्रिसमस से पहले की छोटी सी दोपहर कैसे उबाऊ हो गयी, कैसे बत्तियाँ जल रही थी। कैसे हम साँझ के समय नीचे फारसी कालीनों पर इधर उधर फिसल रहे थे। मुझे याद आ रहा है कि हमने उस दिन नारंगी खाई थी और तभी मुझे अहसास हुआ था कि छिलके का रस कितना उत्तेजक और तीखा होता है, याद आ रहा है कि चाँदी की पन्नी में से कैसे चाकलेट खोलते चले गये थे। तब पहली बार मैंने चाँदी की पन्नी के चमचमाने में, उसकी आवाज में असली प्रसन्नता पाई थी। याद आ रहा है मुझे जब डिब्बों से संगीत उत्पन्न किया गया था। तब पहली बार मैंने एक गाने का आनंद लिया था। तभी मैंने आवाज़, खुशबू, रंग की खोज की थी, जो कि शानदार थी, दिल को खींच लेने वाली, दिल को धड़का देने वाली थी, पूरी ज़िन्दगी थी। मुझे इस बात का भी स्मरण है कि हम मदहोश और बेचैन हो, लाल कान लिये कैसे देर शाम तक खेलते रहे थे। हमारे बाल बिखरे हुए थे, खुशी से मदहोश थे, ठंड लग रही थी, मेरे आँसू बह रहे थे जब मुझे घर ले जाया गया था। सड़क पर अंधेरा फैल चुका था, बर्फ़ के टुकड़े मेरे गर्म आँसूओं से पिघल रहे थे। भूली बिसरी यादों के रूप में ये सब अब प्रकट हो रही हैं। मुझसे छुपन-छुपाई खेलती, आकर्षित करती, छकाती, भविष्य को सामने दिखती, जो बहुत पहले ही भूत में बदल चुकी हैं। भूला-बिसरा क्षण जीवन में फिर-फिरकर आने वाली ऐसी चीज है, जिसके साथ एक अनगढ़ सी याद जुड़ी रहती है। ज़ाहिर है कि यह उसे संवार कर कुछ अलग ही रूप प्रदान कर देती है, जैसे कि हमारी परेशानियाँ को भी ऐसी ही धुंधली, अनगढ़ यादें मुश्किल और असहनीय बना देती हैं।

भूली बिसरी यादें जीवन में बार बार वापिस आती हैं जिनसे एक कल्पना बंधी रहती है। ज़ाहिर है कि ये उसे संवार अलौकिक बनाती हैं। ऐसे ही हमारी परेशानियाँ को भी धुंधली, काल्पनिक यादें मुश्किल और असह्य बना देती हैं।

ऐसे ही, अभी तक दीवार के पास खड़ा, अपनी आत्मा में झाँकते हुए मैं सोच-विचार कर रहा हूँ। आश्चर्य इस बात पर कर रहा हूँ कि यादों का कितना बोझ हम अपने ऊपर ढोते रहते हैं, कितना सब कुछ, जिसके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते, कितना सब कुछ जो हमारे अंदर सुन्न सा पड़ा रहता है। शायद, कभी एक बार जीवित हो उठता है, या फिर शायद कभी न हो पाए। सोचते हुए चलने लगता हूँ। आकाश की ओर निहारता हूँ, नारंगी बादल खोजता हूँ, लेकिन तभी देखता हूँ, इस बीच वह भी गायब हो चुका था, कहीं भी नहीं था, राख़ में तब्दील हो गया था।

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