शनिवार, 1 मई 2010

किश शमु योश्का

जिग्मोन्द मोरित्स--

अनुवाद .मारिया नेज्यैशीए असगऱ वजाहत--

वे एक ही गाँव से आये थे, कहीं ट्राँसिल्वानिया की सीमा के आस-पास से और ट्राँसिल्वानियन लोगों जैसे चलाक भी थे। हमेशा खुश रहते थे, मस्तमौला। कतार में दोनों एक दूसरे के साथ-साथ खड़े होते थे। आखिरकार दोनों के नाम तक आपस में धुल-मिल गये थे जो सारी पल्टन में विख्यात था। एक का नाम किश शमुए दूसरे का नाम शमु योश्का था। पर दोनों के नाम एक साथ घुल-मिल कर हो गये थे - किश शमु योश्का।

- भाई - किश शमु ने कहा - मुझे भूख सी लग रही है।

उन्हें खाना खाये दो दिन हो गये थे। उन के पास फूटी कौड़ी तक न थी। उन्हें मोर्चे की तारों से बनी बाड़ तक भेजा गया था। उनके पीछे एक बड़ा मैदान था जिसे सिर्फ रात को कुछ सैनिक छिपकर ही पार कर सकते थे और वे भी अधिकतर इन बेचारों के लिए खाना नहींए गोलियाँलाया करते थे।

- क्या खाएँ भाई ? - शमु योश्का ने कहा।

- खाने को क्या है ?

- मेरे पास पानी है।

- मेरे पास नमक है।

- वाह, बढ़िया सूप बनाया जाय।

- पर किस चीज़ का सूप ?

- घास का।

- क्या वह चलेगा ?

- ज़रूर।

- रुक जाओ ऐसे नहीं बनेगा। मैं शोशका साग का सूप बना दूँ, वह ज्य़ादा अच्छा होगा।

- वह है कहाँ ?

- ढूँढ़ लेंगे। इस इतने बड़े मैदान में कहीं न कहीं तो मिलेगा। मेरी अम्मा गाँव में वैसे ही बाहर जाकर पकाने भर को तोड़ लाती है।

- वाह, तब तो मज़ा आ जाएगा।

इसके ऊपर वे दोनों हँसे।

मैदान में रौंदी और कुचली घास में वे व्यर्थ ही इधर-उधर घूमते रहे, उन्हें पकाने के लिए शोशका नहीं मिला।

- सुन भाई, मैं मोर्चे के आगे जाऊँगा, वहाँ कौन जाता है ? खूब घास खड़ी है... उधर तो ज़रूर मिलेगा।

- मैं भी आऊँगा।

- नहीं तुम न आओ, क्योंकि अगर एक वहाँ लुढ़क गया तो दूसरा कम से कम थोड़े से शोशका के लिए क्यों मरे ?

- तब तो देखोए मैं ही जाऊँगा।

- तुम सब घास चर डालोगे तो वहाँ मेरे लिए क्या बचेगा, कद्दू ?

इतने में किश शमु तारों की मोर्चाबंदी के नीचे से घिसटकर उधर निकल गया। वह धीरे धीरे एक बड़े मोटे छछूंदर की तरह सरक रहा था। उसे घास की हर एक पनी का एहसास हो रहा था, सूंघ रहा था, चटरपट्टी तक चख रहा था, पर उसे ऐसा कोई पौधा नहीं मिला जैसा उसकी माँ तोड़कर लाया करती थी - कोमल मीठे पत्ते। आह, कितने दूर हैं वे : माँ और अपना देस।

वह सरकता रहाए आगे और आगे, हरी घास में प्यार से, धीरे धीरे, बिना आवाज़, ऊँची कटाई के लिए तैयार सरपत में। अपने सिर को बार बार छिपाते हुए और पंजों से मिट्टी को खरोंचते आगे सरकना उसको बहुत अच्छा लगा।

दुश्मन का मोर्चा बिलकुल दूर न था। रूसी खाइयाँ कोई सौ मीटर दूर थीं पर बीच में घने झाड़ थे और इतनी कच्ची घास थी कि घुटने टेको तो सिर बाहर दिखाई नहीं देता था। किश शमु और आगे बढ़ता रहा। वह केवल स्वयं ही देख रहा था कि खड़ी हुई पतली घास की पत्तियाँ उसके शरीर के नीचे कैसे दबती हैं।

अचानक अजीब सी आवाज़ कानों से टकराई।

एक क्षण के लिए डर के मारे चुप रहा, फिर धीमी आवाज़ में हंसने लगा कि सुनाई न दे।

वह किसी के खर्राटे सुन रहा था।

अब क्या किया जाय ?

खुली, बड़ी नीली छतरी के नीचे इतने आराम से कौन सो सकता है?

आखें ऊपर उठायीं जो सिर्फ गहरा नीला आसमान था। पूर्व की ओर से सफेद बादल तैरते आ रहे थे। हे भगवानए यह आदमी इतने अधिक अजनबी माहौल और दुश्मनों के बीच कैसे सो सकता है ? शरीर तो आराम माँगता है। घर पर आदमी कैसे सोने जाता है ? जब रोज़ का काम खत्म हो जाता है तब बिछे हुए मुलायम और अच्छे पयाल में घुस कर ऐसे लेट जाता है कि सुबह तक उसे पता ही नहीं चलता क्या है ज़िन्दगी ... बस, मध्यरात्रि को जब घोड़े फुफकारने लगते हैं तब कुछ होश आता है कि आधी नींद में भी अपना कर्तव्य निभाएँ - घोड़े को ताज़ा चारा डालूँ ... आदमी को हर तरह की आदत पड़ जाती है।

इस वक्त भी उसकी पलकें मनों भारी हो रही हैं। फिर भी वह सो नहीं सकता ... लेकिन इस आदमी को देखकर जो उसके सामने बच्चों जैसी खामोश और मीठी नींद सो रहा है, ऐसा लगता है जैसे उससे स्वप्नों की किरनें फूट रही हों जो छूत की बीमारी जैसी उसे लग रही हों और उसकी पलकों को मीठे शहद से चिपका रही हों। वह मदहोश सा सामने छछूंदर के कोमल मिट्टी के घर के ऊपर लगभग सिर रखता है कि - दुनियाँ परेशानियाँ थकान पस्त करनेवाली भूख वह सब कुछ भूल जाये, अपने आपको सब से प्यारे और मीठे सपनों के हवाले कर दे ...

उसे अचानक दूसरे की याद आती है शमु योश्काए उसका दोस्त। जो वहाँ मोर्चे पर तार की बाड़ के पीछे मीठी शोशका पत्तियों का इंतज़ार कर रहा होगा कि सूप बनाया जायेगा।

सारी नींद एक दम आँखों से उड़ जाती है। उसकी ज़िन्दगी वह तो कोई बात नहीं, दूसरे लोग भी मारे गये हैं, हज़ारों लाखों और संसार की सृष्टि से लेकर आज तक कितने लोग मरे हैं, और इस के बाद भी हमेशा सब को एक बार मरना है। पर शमु योश्का मीठी शोशका पत्तियों का इंतज़ार कर रहा है।

किश शमु को एक बात सूझी।

अपनी जीवन-शक्ति को फिर एक बार समेटकर वह और आगे बढ़ा, धीरे धीरे, छिपकली की तरह।

और उसके सामने रूसी सैनिक।

वह टांगें फैलाये बेखबर सो रहा है। हरे से कपड़े पहने, उसकी टोपी सिर से आधी सरक गयी है, लंबे, हलके भूरे रंग के बाल पसीने से भीगे हुए, गरम माथे पर बिखरे हुए हैं। उसका मुंह थोड़ा सा खुला है, चेहरा बच्चे जैसा सौम्य और शांत। सिर घास के पुंज पर टिका है। उसकी बन्दूक हाथ से गिर गयी है, खाने का थैला उस के पास है, वह ऐसा सो रहा है जैसे नन्हा सा बच्चा पूरे विश्वास औैर खुशी से अपने को माँ की गोद के हवाले करके सोता है कि जो भी हो, उसे कोई परवाह नहीं। जागने से पहले उस से प्यार किया जा सकता है या मौत के घाट उतारा जा सकता है ... यह रूसी किसके भरोसे यहाँ पड़ा है। पवित्र भूमि उसके नीचे धड़क रही थी। एसा लगता था कि भूमि के धड़कने के साथ-साथ रूसी बहादुर धीमी धीमी साँसें ले रहा है।

किश शमु की आँखें चमकने लगीं। उसकी नज़र तेज़ हो गयी। वह कनखियों से देख और तौल रहा था कि रूसी कितनी गहरी नींद सो रहा है।

फिर उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया। मुट्ठी में तेज़ और नुकीली संगीन थी ...

वह संगीन रूसी के खुले, बालोंवाले, लाल और काँपते हुए सीने से बस एक सेंटीमीटर पहले रुक गयी ... ऐसा लगा जैसे कठोर लोहे की क्रूर संगीन अपने आप किसी सुन्दर और सच्चे विचार के प्रभाव के कारण दुविधा में पड़ और काँप कर रुक गयी हो। फिर पीछे हट रही है, दूसरे हाथ में चली जाती है।

किश शमु ने दूसरे हाथ से जो खाली था, लम्बी रूसी बन्दूक को पकड़ा और घास पर से उठा लिया ... यदि जीवित मनुष्य की आत्मा न जुड़ी हो तो यह बन्दूक रूपी मशीन भी कितना आज्ञाकारी जानवर है। रूसी मौत अब हंगेरियन मुट्ठी में थी... लेकिन अब मुट्ठी फिर से खुल गयी, हंगेरियन हाथ आगे बढ़ाए उसने भूरे रंग का रोटी का थैला उठाया ...

इसके सिवाय उसे कुछ नहीं चाहिए था।

एक बार फिर उसने सोते हुए बड़े से लाल आदमी पर नज़र दौड़ायी। वह युवा आदमी तो नहीं था। उसके चेहरे पर सुनहरी और खशखशी दाढ़ी की खूटियाँ थीं। चेहरे पर थकान की रेखाएँ थीं जैसी जीवन की लड़ाई में पिसे-कुचले पिताओं की होती हैं।

सोते रहो, भई - किश शमु ने मन ही मन कही। फिर बन्दूक और थैला गले में लटकाकर पीछे सरकने लगा।

एक तेज़ खर्राटा सुनाई दिया जिससे वह डर गया। भयानक रूप से डर गया। अगर वह बेचारा जग गया तो उसे मरना ही पड़ेगा।

वह खामोशी से उस राई के कीड़े की तरह इंतज़ार करने लगा जो ज़रा सी आवाज़ तक सुनकर मुर्दा होने का अभिनय करता है और एक लंबे क्षण के बाद फिर चल देता है ...

वह जैसे आया था इसी तरह अपनी खाँच पर वापस जाने लगा ... बर्फ में खरगोश की खाँच को कैसे पहचाना जा सकता है ? खरगोश के जोड़े की दोहरी खाँच कोए पहले दो छोटे निशानए पीछे दो बूढ़े निशान। या लोमड़ी की खाँच को कैसे पहचाना जा सकता है, जैसे लगातर दुलकी चाल से चली जा रही हो और उसकी लंबी पूंछ पीछे बर्फ में झाड़ू दे रही हो... आदमी की खाँच और भारी होती है, ज़िन्दा घास ऐसे टूटती है जैसे घासवाले खेत में खाई खोदी-उकेरी गयी हो।

जब वह तारों के नीचे से वापस घुसा तो शमु योश्का उसे वहीं पहरा देता हुआ मिला। बैठे बैठे वह सो गया था। वह भी रूसी सैनिक की तरह सो रहा था और जागा नहीं।

सोने की बड़ी सख्त सज़ा दी जाती थी : हण्टरों से खूब तगड़ी धुनाई और पीठ के पीछे हाथों को बाँध कर पेड़ से लटका दिरा जाता था और अगर कोई मोर्चे पर ही सोता पाता गया तो गोली... और यह सो भी कैसे रहा था... मीठे शोशका साग का इंतज़ार उससे नहीं किया जा सका।

- उठ... उठ... - दोस्त ने उसको हिलाया - उठए यार...

मुश्किल से वह उसे होश में लाया।

- यह लो, खाना।

शमु योश्का बड़ी बड़ी नींद से भारी आँखों से वह मोटा रोटी का थैला देखने लगा। फिर उसने दोस्त की ओर देखा। सिर हिलाया। वह सब समझ गया।

लेकिन उस थैले में कुछ अजीब सी चीज़ थी जिसे देखकर दोनों की आँखें फैल गयीं। एक अद्भुत कृति : छोटा सा गुड़िया का पालना।

शमु योश्का ने उसे हाथ में ले लिया। हथेली में रखकर देखने लगा। काफ़ी बढ़िया बना था नन्हा मुन्ना पालना। जेबी चाकू से अच्छी तरह तराशा गया था, छोटे झूले जैसा पालना।

दोनों खामोशी से देखते रहे।

आसमान में सूरज की गरम धूप चमक रही थी, वे छाया न होने से चौंधिया रहे थे, उनके माथों पर पसीने के मोती निकल आये थे और आँखों के आस पास इकट्ठा होकर नीचे लुढ़क कर गिर रहे थे ...

शमु योश्का के आघ्सू छोटे पालने के बीचों बीच गिरे।

- कहाँ से मिला यह तुम्हें, भाई ?

- उधर एक बेचारा अकेला सो रहा है - किश शमु ने कहा।

शमु योश्का ने सिर हिलाया।

वे चुप रहे। वह यह कहनेवाला था : यह पालना मेरी बेटी, बोजि के लिए अच्छा रहेगा। पर उसके मुंह से कुछ न निकला। चुप रहा। दूसरा भी यह कहनेवाला था तुम अपनी छोटी बिटिया, बोजि के लिए उसे घर ले लाओ। पर उसने भी नहीं कहा।

वे रोटी के टुकड़े तोड़ तोड़कर धीरे-धीरे खा रहे थे। भगवान की दी रोटी का छोटे से छोटा टुकड़ा उनके मुंह में जा रहा था।

तब शमु योश्का बोला।

- सुन भई।

- क्या चाहिये, यार?

- वह बेचारा कहाँ सो रहा है?

- उधर नीचे।

और वे खाते रहे। तब दूसरी बार किश शमु बोला।

- अरे यार, अगर मुझे पता होता ...

और फिर वे खाते रहे।

फिर शमु योश्का ने एक बात कही : - अपनी बोजि बेटी के लिए मैं भी इस तरह का पालना बना सकता हूँ।

वह अपनी माहिर आँखों से पालने का रूप देख और समझ रहा था।

फिर किश शमु ने कहा :

- बढ़िया कारीगरी है लेकिन जादू नहीं है।

शमु योश्का ने इस पर कहा :

- नहीं, जादू तो नहीं है।

फिर किश शमु बोला :

- ज़रा मुझे दिखाओ।

- तुम्हें दे दूँ ... नहीं... नहीं...

- भलें मानुस उसे मैं खा तो न जाऊँगा।

- पता नहीं, आप क्या चाहते हो, पर मैं तो उसे वापस करना चाहता हूँ।

- आप उसे कैसे वापस करेंगे जबकि मैं उसे लाया हूँ।

- क्योंकि यह बात मुझे सूझी... मेरी भी बेटी है, ये मैं ही समझता हूँ कि क्यों ...

उसने और कुछ नहीं कहा, बस, दूसरे की खाँच पर चल दिया। उसे डर लगा कि गला भारी होने के कारण वह बोल भी न सकेगा।

- अरे, कम से कम उस के अंदर कुछ तो रखो, आप खाली पालना कैसे दोगे? - किश शमु ने घुड़का। फिर चौथाई रोटी तोड़ कर .... उस रूसी को भी मालूम नहीं, रोटी फिर कब मिलेगी।

वहाँ घास में सिर नीचे किये बैठा रूसी जाग रहा था। उसे पता नहीं था, क्या हुआ।

सिर्फ तब चौंक उठा जब उसके सामने आदमी का चेहरा आया। शमु योश्का ने हाथ हिलाया, फिर पालने को हथेली में रखकर उसे आगे बढ़ा दिया।

रूसी ने नींद से बोझिल लाल आँखें उठायीं और उसकी तरफ़ आश्चर्य और फूहड़ता से देखा।

ले लो जी... लो... - शमु याश्का ने मैत्री भाव से कहा - इस में कोई बम-वम नहीं है, वैसे आप पहचानो इसमें क्या है।

रूसी ने उसे ले लिया। दो पिताओं ने एक दूसरी की ओर देखा फिर जल्दी ही मुड़ गये।

लड़ाई के मैदान में आदमी की आँखों में आँसू आने के लिए दोनों को शर्म आयी।

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