शनिवार, 1 मई 2010

वह भयानक तीसरा

मोरित्स ज़िग्मोन्द-- अनुवाद- मारिया नैज्येशी--


बुढ़िया घंटी की आवाज़ सुनकर काँप गयी। जल्दी दरवाज़ा खोलने लपकी। हाँ उसकी बहू आ गयी थी। उसने उसके चेहरे पर कुछ खोजना चाहा लेकिन उस पर कुछ भी दिखाई नहीं दिया। अदेलका का मूड हमेशा की तरह खराब था। - तुम्हें भूख लग रही होगी, बहू ? नहीं। मैं आपको बता चुकी हूँ कि मुझे भूख नहीं लगती। अम्मा, आप मुझे हमेशा ऐसे ही देखती हैं मानो मैं भूखों मरती हूँ । बहू, मेरी समझ में नहीं आता कि तुम क्या खाकर गुज़ारा कर रही हो। मैं केवल यह देखती हूँ कि तुम घर पर कुछ नहीं खातीं। - मैं तो काम पर ही खाती हूँ। नाश्ता २० फिल्लेर१ में मिलता है, दोपहर का खाना ५० में - उसमें सूप, मांस और कुछ मीठा - और शाम को १० फिल्लेर में नाश्ता। कुल मिलाकर ८० फिल्लेर लगते हैं और मैं गुब्बारे की तरह मोटी होती जा रही हूँ। और आप मुझे घर पर भी ज़बरदस्ती खिलाना चाहती हैं। बहू ने यह नहीं बताया कि वह नाश्ते पर सिर्फ एक जेमले २ खाती है, दोपहर को सिऱ्फ सूप ३६ फिल्लेर में। बहाना यह करती है कि उसे माँस खाना मना है और बाद में कुछ नहीं खाती। इस तरह भी उसका एक दिन का खाना ४८ फिल्लेर का पड़ता है। यह एक महीने में बारह-पंद्रह पैंगो ३ तक हो जाता है क्योंकि कभी-कभी एक जेमले या थोड़ी सी मिठाई भी खा लेती है। उस सुपरबाज़ार में सभी सामान बेचनेवाली लड़कियाँ यही करती हैं। अर्थात जो भी उनमें से ईमानदार हैं और जो किसी दूसरी लड़की की दोस्ती पर परोपजीवी नहीं बनतीं। तन्ख्वाह तो बहुत कम है: एक महीने में २१-२२ पैंगो से अधिक नहीं बनती। रोज़ का खाना ८० फिल्लेर में नहीं पड़ सकता। और उसका पति बेरोज़गार है। दो हफ्त़े से उसने पैर पहिया कर रखा है पर एक फिल्लेर कमाकर घर न ला सका। उसने इतने में कपड़े उतारे और पलंग पर लेट गयी। यह उसकी एकमात्र विलासिता होती है जिसकी वह समर्थ है कि घर पहुँचते ही लेट जाती है। सो भी जाती है और केवल तब उठती है जब विक्तोर घर आता है।

- क्या हुआ ?

- कुछ नहीं। माँ एक छोटेए भूरे से चूहे की तरह डरी हुई उन दोनों को देखती है, फिर सावधानी से बाहर निकल जाती है। एक बर्तन में आलू की सब्जी लाकर बिना कुछ कहे बेटे के सामने रखती है।

- यह क्या है ?

- मैंने पकाया है, बेटे। मास्टर जी के यहाँ सफाई करने गयी थी। युवा खाने लगता है। अपने को रोक पाने में असमर्थ है। जितना उचित है उससे बहुत ज्य़ादा खाता है पर भूख नहीं मिटती। पूरे दिन तीन जेमले के अलावा उसने कुछ नहीं खाया था। जब उसका पेट भर जाता है तो पत्नी के पास जाकर रजाई के ऊपर से उसे सहलाता है। - कुछ नहीं हुआ ? उसकी पत्नी धीमी और डरी आवाज़ में कहती है :

- आज ब्लित्स ने मुझे अच्छी तरह देख लिया।

- क्या कुछ कहा भी ?

- उसने कहा क्या बात है जी, आप ठीक से चल नहीं पातीं ?

- फिर क्या हुआ?

- इस पर मैं गिलहरी की तरह एक दम सीढ़ी के ऊपर चढ़ गयी और ऊपर से उन्हें बक्से देती रही। पर ऐसा लगा कि उसने खूब अच्छी तरह देख लिया मुझे।युवा आदमी ने डरकर हाथ उठाया।

- क्या वह पेट में पैर चलाता है ? हाँ बहुत ज्य़ादा। लातें मारता है।

- क्या मुसीबत आ पडी। वे गहरी परेशानी में डूबे चुप रहे। बुढ़िया हर शब्द को ध्यान से सुनने और समझने की भरपूर कोशिश कर रही थी। वह बहरी थी फिर भी उन्हें सुन और समझ रही थी। उसने रूमाल से आखें पोंछीं और बाहर, छोटे रसोईघर चली गयी। उस के बाद अंदर नहीं आयी। युवा दम्पति को भी नींद नहीं आयी। वे इतने परेशान थे कि न तो बातें कर सकते थे और न इन्हें चुप रहने से चैन मिल रहा था। अगर सुपरबाज़ार में पता चल गया कि अदेलका कई महीने के गर्भ से है तो नौकरी से ज़रूर निकाल दी जाएगी। सर्दियों में सोफ़ासाज़ पति को काम थोड़े ही मिलेगा। उनकी जो थोड़ी बहुत बचत थी वह भी घर का खर्च चलाने में निकल गयी थी और अब पैसा कमाने में वे असमर्थ हैं। अदेलका वैसे ज्य़ादा तो नहीं कमा सकती : बस पति के लिए कभी-कभी दो-चार पैंगो ही ले आती है। परंतु अगर उसकी कमाई मारी जाती है तो उसे भी खाने के लिए पैसा चाहिए होगा। - मैंने तो तुमसे डाक्टर के पास जाने को कहा था। युवती चुप रही। डाक्टर के लिए पैसा चाहिए था। तब सर्दियाँ शुरू हुई थीं उसी समय पति बेरोज़गार हो गये थे। वह इस बात का ज़िक्र भी कर नहीं पायी थी। और उस में हिम्मत भी नहीं थी। घर पर उसकी शिक्षा -दीक्षा ही इस प्रकार से नहीं हुई थी। अब आँसू बहा रही है। फूट-फूटकर रोने के बाद उसका मन कुछ हलका हुआ तो फिर इतनी मज़बूती से दांत इस तरह जकड़े जैसे सब कुछ कर गुज़रने की ठान ली हो। फिर चुप हो गयी। दूसरे दिन सुबह समय पर अदेलका ने युवा लड़की की तरह सुन्दर कपड़े पहने और चल दी। पति कुछ चिंतित होकर सुपरबाज़ार तक उसे छोड़ने चल पड़ा। उन्हें शहर पार करके कोई तीन किलोमीटर दूर जाना था। सड़क पर बहुत लोग आ जा रहे थे, ट्रामें खाली जा रही थीं। सभी लोग काम पर पैदल जा रहे थे। वे एक दूसरे के पास लेकिन बिना स्पर्श किये ऐसे ही चल रहे थे मानो उन्हें कुछ एक दूसरे से अलग कर रहा हो। ऐसा लगता था जैसे बिजली के करंट ने उन्हें एक दूसरे से अलग कर दिया हो। वे अलग अलग कांप रहे थे फिर भी साथ थे। सुपरबाज़ार के सामने युवा आदमी पत्नी से मुस्कुराकर बोला :- ठीक है, जाओ। भगवान भला करें।

अदेलका भी मुसकुराने लगी :- देख लो मुझे क्या कुछ दिखाई दे रहा है ?

- नहीं कुछ नहीं, हिम्मत से काम लो ... और कुछ खाया भी करो न।

- क्यों खाऊँ ! युवती छोटे से वीर की तरह खुले हुए दरवाज़े की ओर झपटी। पति मुड़ कर चल दिया और कुछ कदम जाकर वापस देखा। वह कुछ परेशान था। उसे ऐसा लगा जैसे श्री ब्लित्स दरवाज़े पर खड़े हों। फिर उसने श्री ब्लित्स को तो नहीं देखा परंतु वह पास ही मढ़राता रहा। उससे जाया नहीं गया। उसकी परेशानी बढ़ती जा रही थी। वह बता नहीं सकता था कि क्यों, पर उसे महसूस हो रहा था कि अभी उसके जीवन का फैसला होनेवाला है। वह पत्थरों की बड़ी इमारतों को बेध और घृणा से देख रहा था। कितनी इमारतें कितने लोग और कितने कड़ाके का जाड़ा ! इसमें यहीं जम जाना चाहिए जैसे जंगल में भेड़िये को। पर मादा भेड़िया अपने बच्चों को जन्म दे सकती है, उसमें कोई दखल नहीं देता। पर इस बेचारी, छोटी सी औरत का जाने क्या होगा ? ...वह इधर उधर टहलता रहा, और उसकी टहलने की रफ्त़ार लगातार बढ़ती जा रही थी। अंत में सुपरबाज़ार के दरवाज़े पर उसे कोई न दिखाई पड़ा । मन में गरजने वाले मेघ और उदासियों के अलावा उसे कुछ महसूस न हुआ। वह इतना परेशान हो गया कि कुछ सोच भी न सका।

- ऊपर वे इन्हें इतना क्यों सताते हैं ?

- वह ऊँचे स्वर में बोला और उसे पक्का विश्वास था कि अदेलका अपने काउण्टर पर न होगी बल्कि अंदर आफिस में खड़ी होगी और किस्मत का फ़ैसला होने की प्रतीक्षा कर रही होगी। इसी मिनट सुपरबाज़ार के सामने एक पीली युवा औरत आ गयी जो डगमगा रही थी जैसे उसे चक्कर आ रहे हों। वह अपनी पत्नी को पहचान न पाया।

- क्या हुआ ?

औरत ने कन्धे उचकाये।

- उन्होंने लंबा इंतज़ार कराया। उसके बाद उनके डाक्टर ने मेरी जांच की और कहा कि सातवाँ महीना हो गया है।

- तुम्हें निकाला गया ?

औरत ने अपना हाथ बढ़ाकर दिखाया :- चालीस पैंगो मिले। फिर वे बहुत से लोगों के बीच सड़क पर चलने लगे। दोनों को ऐसा लगा मानो किसी भयानक शक्ति ने उन्हें उस नाभीनाल से काट दिया हो जो अभी तक उन्हें जीवन से जोड़ती थी।

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