शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

सत्यजित राय और सार्वभैमिकवाद की कला, हमारी संस्कृति, उन की संस्कृति

सेमेरिच आग्नेश--

अमर्त्य सेन बैंगाली अर्थशास्त्री और दार्शनिक है। उन्हें 1998 में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनके अंशदान के लिए विश्व में सबसे बड़ा सम्मान, अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार मिला। उन्होंने सत्यजित राय की कला का संस्कृतियों की विविधता, उनके परस्पर संबंध और किसी समाज के गुणावगुणों की जटिलता पर उनके विचारों के नज़रिये से अन्वेषण किया है।
सत्यजित राय की रचनाएँ संस्कृतियों के बीच के संबंधों का विचारने योग्य सूक्ष्मदर्शी परजान उपस्थित करती हैं। उन के विचार वर्तमान दुनिया के बड़े सांस्कृतिक विवादों की तुलना में भी उपयुक्त हैं। राय की फ़िल्मों और लेखों में संस्कृतियों और उनके संबंधों के सामान्य विषयों के अन्वेषण उपलब्ध हैं। ये हैं अलग स्थानीय संस्कृतियों और उनके पृथकत्व के भेद का महत्त्व, हर एक स्थानीय संस्कृति के विविध स्वभाव के परिजान की आवश्यक्ता, अंतरसांस्कृतिक संचार और उसे सख़्त काम बनाने वाली बाधाओं के पहचान की बड़ी ज़रूरत। विशेषकता की तरफ़ गहरा सम्मान, अंदरूनी विविधता की पहचान और विशुद्ध संचार की ज़रूरत की समझ, सब राय की दृष्टि में शामिल है।
राय हर संस्कृति के अलगाव का सम्मान करने पर ज़ोर देते समय भी बाहरी दुनिया के लिए दरवाज़ा बंद करने का कोई भी कारण नहीं देखते थे। वास्तव में दरवाज़ा खोलना ही राय के काम में महत्त्वपूर्ण प्रथमता थी। भारतीय संस्कृति को रुढ़िवादी तरह देखने और पश्चिमी सोच-विचार से सुरक्षित करने की बढ़ती प्रवृत्ति के मुक़ाबले वे किसी संस्कृति के भी विचार, कला या जीवन शैली से सीखने को तैयार थे। राष्ट्र को समुदायों में बाँटकर उस स्थिति में मृत रुकने की इच्छा करते हैं धार्मिक और लैकिक समुदायवादियों के बावजूद स्थानीय समुदायों की अंदरूणी विविधता के महत्त्व को बहुत मानते थे।
राय सांस्कृतिक सीमाओं के पार के संचार की सम्भाव्यता में संस्कृतियों की भिन्नता से उत्पन्न समस्याओं पर भी विचार करते थे। हमारी फ़िल्में, उन की फ़िल्में में लिखते हैं कि फ़िल्में हर तरह के स्वदेशी गुणों से रंग प्राप्त करती हैं, और प्रश्न उठाते हैं, एक विदेशी गुण के सिर्फ़ अनिपुण जान की सहायता से कोई उसे कैसे महसूस कर सकता है। अंतरसांस्कृतिक संचार की जटिलताओं को समझकर और स्वीकार करके भी राय संस्कृतियों के अंदर के परिज्ञान को असम्भव नहीं, ज़्यादा एक तरह की चुनौती को मानते थे। अलग संस्कृतियों के अंदर के संचार की सम्भाव्यता के अलावा सांस्कृतिक फ़र्कों की उपस्थिति आजकल उस प्रश्न को भी सामने लाती है कि दुनिया लगातर छोटी और एकसमान हो जाने पर संस्कृतियों के अलगाव का कैसे सम्मान किया जा सकता है और मोल लगाया जा सकता है।
संस्कृतियों का अलगाव आजकल एक प्रिय विषय है, और संस्कृतियों के समानीकरण के – विशेष तरह से पश्चिमी शैली के या आधुनिकता के कपटपूर्ण रूप में - अभिप्राय की तीव्र चुनौती मिली। राय एक विशेष सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के महत्त्व का ध्यान बिना इससे इनकार किए, जो दूसरी जगह से सिखा जा सकता है, करना चाहते थे। इस विवेचनात्मक खुलेपन में बड़ी बुद्धि है – दूसरी जगहों से, विचारों के हमलों से डरती दुनिया के बावजूद एक गत्यात्मक अनुकुलनशील दुनिया है। सांस्कृतिक सीमाओं के पार के प्रतिज्ञा की समस्याएँ कला के सभी प्रकारों पर प्रभाव डालती हैं, लेकिन फ़िल्म पर, साहित्य से शायद कम प्रभाव पड़ता है, क्योंकि फ़िल्म भाषा पर उतनी अवलम्बित नहीं है। फिर भी, जैसे राय उल्लेख करते थे, चेष्टा और क्रिया भी प्रतिक्रिया और अप्रतिक्रिया के दैनंदिन अनुभव से उत्पन्न प्रतिरूप से ढाली जाती हैं। शब्दों का सीधे सूचना व्यक्ति करने के अलावा भी प्रकार्य है। भाषा की आवाज़, शब्दों का ख़ास चुनाव विशेष प्रभाव या अर्थ पहुँचाता है। राय भी मानते थे कि भाषा का कथन के प्रकार्य के अलावा रूप देने वाला प्रकार्य भी था और बिना भाषा जाने और अच्छी तरह जानने के बिना बहुत कुछ खाली जाता है। राय उनमें महत्त्वपूर्ण भेद करते थे कि किसी सांस्कृतिक विभाजन के पार बात करते समय क्या समझने योग्य है और क्या नहीं। उन्होंने अपने ‘एक बैंगाली फ़िल्म निर्माता की समस्याएँ’’ नामक लेख में कहा कि भारत विदेश के पूर्व के बारे में कुतूहल से फ़ायदा उठा सकता है, लेकिन झूठा एग्ज़ोटिक की दलाली और उपस्थित किस्सों के पोषण करने के स्थान पर – जो शायद ज़्यादा आसान दिखाई देता है – भारतीय देश और लोगों के विषय में अनेक ख्यालों का नाश करना है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध और सफल मनोरंजक मूवीज़ के मुक़ाबले में - जो सामाजिक पहचान कि दृष्टि को दूर करके एक अनुपस्थित समाज का पेश करती हैं और खलनायक की उपस्थिति की सहायता से दर्शकों के लिए तैयार स्पष्टीकरण के आराम प्रस्तुत करती हैं – राय उन सामाजिक स्थितियों को दिखाने को तरजीह करते हैं जो दुखान्त घटनाओं से बचने को मुश्किल करती हैं। उन की फ़िल्मों में खलनायक दिखाई पड़ता है, उस की भी सभी अन्य जटिल और विभिन्न पात्रों जैसे मानव विशेषताएँ हैं।
सांस्कृतिक विविधता के महत्त्व का ध्यान रखना सही है, लेकिन पश्चिम और पूर्व के विभाजन के एकत्रीकरण के रूप में देखना प्रकट करने की जगह ज़्यादा छिपा रहता है। भारत के एक एक धार्मिक समुदाय – हिंदु या मुसलमान – या भाषा समूह के बारे में भी सामान्यीकरण बहुत भटकानेवाला हो सकता है। शायद लोगों के देश के अलग भागों या विदेश में रहने वाले समूहों के अंदर इन से अधिक महत्त्व की सदृश्यता उपस्थित है जिसे किसी भेद पर ज़ोर देने और अन्यों पर ध्यान न रखने की आजकल की प्रवृत्ति चूकती है। संस्कृतियों के पार के संचार की समस्याएँ सच हैं, लेकिन इसलिए हमारी संस्कृति और उनकी संस्कृति के मानक विभाजन को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। जैसे पूरी तरह से भारतीय शांतिनिकेतन की मानसिकता और इटेलियन फ़िल्म निर्माता डै सीका की कला को समान रूप से अपनाते सत्यजित राय का उदाहरण दिखाई देता है। विविधता और खुलेपन में भारत की लज्जा नहीं गौरव है, जिस की शिक्षा सत्यजित राय ने दी है।
सत्यजित राय और सार्वभैमिकवाद की कला,
हमारी संस्कृति, उन की संस्कृति सेमेरिच आग्नेश
अमर्त्य सेन बैंगाली अर्थशास्त्री और दार्शनिक है। उन्हें 1998 में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनके अंशदान के लिए विश्व में सबसे बड़ा सम्मान, अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार मिला। उन्होंने सत्यजित राय की कला का संस्कृतियों की विविधता, उनके परस्पर संबंध और किसी समाज के गुणावगुणों की जटिलता पर उनके विचारों के नज़रिये से अन्वेषण किया है।
सत्यजित राय की रचनाएँ संस्कृतियों के बीच के संबंधों का विचारने योग्य सूक्ष्मदर्शी परजान उपस्थित करती हैं। उन के विचार वर्तमान दुनिया के बड़े सांस्कृतिक विवादों की तुलना में भी उपयुक्त हैं। राय की फ़िल्मों और लेखों में संस्कृतियों और उनके संबंधों के सामान्य विषयों के अन्वेषण उपलब्ध हैं। ये हैं अलग स्थानीय संस्कृतियों और उनके पृथकत्व के भेद का महत्त्व, हर एक स्थानीय संस्कृति के विविध स्वभाव के परिजान की आवश्यक्ता, अंतरसांस्कृतिक संचार और उसे सख़्त काम बनाने वाली बाधाओं के पहचान की बड़ी ज़रूरत। विशेषकता की तरफ़ गहरा सम्मान, अंदरूनी विविधता की पहचान और विशुद्ध संचार की ज़रूरत की समझ, सब राय की दृष्टि में शामिल है।
राय हर संस्कृति के अलगाव का सम्मान करने पर ज़ोर देते समय भी बाहरी दुनिया के लिए दरवाज़ा बंद करने का कोई भी कारण नहीं देखते थे। वास्तव में दरवाज़ा खोलना ही राय के काम में महत्त्वपूर्ण प्रथमता थी। भारतीय संस्कृति को रुढ़िवादी तरह देखने और पश्चिमी सोच-विचार से सुरक्षित करने की बढ़ती प्रवृत्ति के मुक़ाबले वे किसी संस्कृति के भी विचार, कला या जीवन शैली से सीखने को तैयार थे। राष्ट्र को समुदायों में बाँटकर उस स्थिति में मृत रुकने की इच्छा करते हैं धार्मिक और लैकिक समुदायवादियों के बावजूद स्थानीय समुदायों की अंदरूणी विविधता के महत्त्व को बहुत मानते थे।
राय सांस्कृतिक सीमाओं के पार के संचार की सम्भाव्यता में संस्कृतियों की भिन्नता से उत्पन्न समस्याओं पर भी विचार करते थे। हमारी फ़िल्में, उन की फ़िल्में में लिखते हैं कि फ़िल्में हर तरह के स्वदेशी गुणों से रंग प्राप्त करती हैं, और प्रश्न उठाते हैं, एक विदेशी गुण के सिर्फ़ अनिपुण जान की सहायता से कोई उसे कैसे महसूस कर सकता है। अंतरसांस्कृतिक संचार की जटिलताओं को समझकर और स्वीकार करके भी राय संस्कृतियों के अंदर के परिज्ञान को असम्भव नहीं, ज़्यादा एक तरह की चुनौती को मानते थे। अलग संस्कृतियों के अंदर के संचार की सम्भाव्यता के अलावा सांस्कृतिक फ़र्कों की उपस्थिति आजकल उस प्रश्न को भी सामने लाती है कि दुनिया लगातर छोटी और एकसमान हो जाने पर संस्कृतियों के अलगाव का कैसे सम्मान किया जा सकता है और मोल लगाया जा सकता है।
संस्कृतियों का अलगाव आजकल एक प्रिय विषय है, और संस्कृतियों के समानीकरण के – विशेष तरह से पश्चिमी शैली के या आधुनिकता के कपटपूर्ण रूप में - अभिप्राय की तीव्र चुनौती मिली। राय एक विशेष सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के महत्त्व का ध्यान बिना इससे इनकार किए, जो दूसरी जगह से सिखा जा सकता है, करना चाहते थे। इस विवेचनात्मक खुलेपन में बड़ी बुद्धि है – दूसरी जगहों से, विचारों के हमलों से डरती दुनिया के बावजूद एक गत्यात्मक अनुकुलनशील दुनिया है। सांस्कृतिक सीमाओं के पार के प्रतिज्ञा की समस्याएँ कला के सभी प्रकारों पर प्रभाव डालती हैं, लेकिन फ़िल्म पर, साहित्य से शायद कम प्रभाव पड़ता है, क्योंकि फ़िल्म भाषा पर उतनी अवलम्बित नहीं है। फिर भी, जैसे राय उल्लेख करते थे, चेष्टा और क्रिया भी प्रतिक्रिया और अप्रतिक्रिया के दैनंदिन अनुभव से उत्पन्न प्रतिरूप से ढाली जाती हैं। शब्दों का सीधे सूचना व्यक्ति करने के अलावा भी प्रकार्य है। भाषा की आवाज़, शब्दों का ख़ास चुनाव विशेष प्रभाव या अर्थ पहुँचाता है। राय भी मानते थे कि भाषा का कथन के प्रकार्य के अलावा रूप देने वाला प्रकार्य भी था और बिना भाषा जाने और अच्छी तरह जानने के बिना बहुत कुछ खाली जाता है। राय उनमें महत्त्वपूर्ण भेद करते थे कि किसी सांस्कृतिक विभाजन के पार बात करते समय क्या समझने योग्य है और क्या नहीं। उन्होंने अपने ‘एक बैंगाली फ़िल्म निर्माता की समस्याएँ’’ नामक लेख में कहा कि भारत विदेश के पूर्व के बारे में कुतूहल से फ़ायदा उठा सकता है, लेकिन झूठा एग्ज़ोटिक की दलाली और उपस्थित किस्सों के पोषण करने के स्थान पर – जो शायद ज़्यादा आसान दिखाई देता है – भारतीय देश और लोगों के विषय में अनेक ख्यालों का नाश करना है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध और सफल मनोरंजक मूवीज़ के मुक़ाबले में - जो सामाजिक पहचान कि दृष्टि को दूर करके एक अनुपस्थित समाज का पेश करती हैं और खलनायक की उपस्थिति की सहायता से दर्शकों के लिए तैयार स्पष्टीकरण के आराम प्रस्तुत करती हैं – राय उन सामाजिक स्थितियों को दिखाने को तरजीह करते हैं जो दुखान्त घटनाओं से बचने को मुश्किल करती हैं। उन की फ़िल्मों में खलनायक दिखाई पड़ता है, उस की भी सभी अन्य जटिल और विभिन्न पात्रों जैसे मानव विशेषताएँ हैं।
सांस्कृतिक विविधता के महत्त्व का ध्यान रखना सही है, लेकिन पश्चिम और पूर्व के विभाजन के एकत्रीकरण के रूप में देखना प्रकट करने की जगह ज़्यादा छिपा रहता है। भारत के एक एक धार्मिक समुदाय – हिंदु या मुसलमान – या भाषा समूह के बारे में भी सामान्यीकरण बहुत भटकानेवाला हो सकता है। शायद लोगों के देश के अलग भागों या विदेश में रहने वाले समूहों के अंदर इन से अधिक महत्त्व की सदृश्यता उपस्थित है जिसे किसी भेद पर ज़ोर देने और अन्यों पर ध्यान न रखने की आजकल की प्रवृत्ति चूकती है। संस्कृतियों के पार के संचार की समस्याएँ सच हैं, लेकिन इसलिए हमारी संस्कृति और उनकी संस्कृति के मानक विभाजन को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। जैसे पूरी तरह से भारतीय शांतिनिकेतन की मानसिकता और इटेलियन फ़िल्म निर्माता डै सीका की कला को समान रूप से अपनाते सत्यजित राय का उदाहरण दिखाई देता है। विविधता और खुलेपन में भारत की लज्जा नहीं गौरव है, जिस की शिक्षा सत्यजित राय ने दी है।

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