मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

हंगरी में भारत के वर्तमान राजदूत- महामहिम गौरीशंकर गुप्ता जी का साक्षात्कार

ओर्शोया सास--

ओर्शोया सास:- महामहिम जी, आप हंगरी आने से पहले हमारे देश के, लोगों के, संस्कृति के बारे में क्या सोचते थे? यहाँ आने के बाद के अनुभवों का इसपर क्या प्रभाव पड़ा?



महामहिम जी:- राजदूत के रूप में हंगरी आने से पहले भी मैं दो बार यहाँ आ चुका हूँ। पहली बार मैं उन्नीस सौ पचासी में आया था और दूसरी बार उन्नीस सौ अठानवे में आया था। तो मुझे यहाँ के लोगों का, यहाँ की संस्कृति का कुछ आइडिया था। पूरी तरह से नहीं लेकिन कुछ आइडिया था। मुझे यह भी पता था कि हंगरी पूर्वी और पश्चिमी देशों के बीच में एक ब्रिज, पुल के रूप में है। यहाँ के लोग भारतीय सभ्यता और संस्कृति को काफी पसंद करते हैं।

ओर्शोया सास:- महामहिम जी आपने एक इंटरव्यू में कहा है कि आपको यहाँ बिताये हर मिनट से आनंद की अनुभूति होती है, इसका क्या कारण और मतलब है?



महामहिम जी:- आनंद की अनुभूति इसलिए होती है कि यह देश बहुत सुन्दर है, यहाँ के लोग अच्छे हैं, उनका व्यवहार बहुत अच्छा है। वे भारतीय सभ्यता, संस्कृति और लोगों को बहुत पसंद करते हैं। अगर आप पश्चिमी योरोप के देशों से हंगरी की तुलना करें, तो यहाँ के लोगों में मानवीयता की भावना ज़्यादा है, इनसे संपर्क करना ज़्यादा आसान है। मनुष्यों के बीच में जो इंटरएक्शन होता है, हंगरी में वह बड़ा सरल है। यहाँ के लोगों को आप मित्र भी बना सकते हैं, जबकि पश्चिमी योरोप के देशों में यह थोड़ा मुश्किल काम है।

ओर्शोया सास:- महामहिम जी जब हंगरी और भारत के संबंधों की चर्चा चलती है तो हम हमेशा बहुत पुराने, भाईचारा पूर्ण सांस्कृतिक संबंधों के बारे में सुनते हैं। आजकल राजनैतिक, वित्तीय और शैक्षिक संबंध भी गहराते जा रहे हैं। इन संबंधों में से कौन-कौन से संबंध दूर तक जाने की संभावना है?



महामहिम जी:- भारत के संबंध हंगरी के साथ बहुत पुराने हैं। अगर आप हमारे संबंधों का इतिहास देखें, तो दोनों देशों के बीच में पंद्रहवीं, सोलहवीं सदी में भी संपर्क व संबंध रहे हैं। अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में काफी संपर्क रहे हैं। अगर आप बड़े व्यक्तियों की बात करें, तो रबिन्द्रनाथ टैगोर का हंगरी से बहुत गहरा संबंध रहा है। उसी तरह से चोमा कोरोशी, जो हंगरी के भारतविद थे, उनका बहुत गहरा संबंध है हिन्दुस्तान के साथ। एलिज़ाबेथ शश-ब्रुन्नैर और उनकी बेटी एलिजाबेथ ब्रुन्नैर दोनों का भी हिंदुस्तान से बहुत गहरा संपर्क रहा है, वे दोनों वहीँ गुज़री हैं, उनकी कब्रें भी वही हैं। इसी तरह से चोमा कोरोशी की कब्र भी वहीँ पर है। इसी कड़ी में अमृता शेरगिल का नाम भी आता है, जिनका हंगरी से बहुत गहरा संबंध है, उनकी माता हंगेरियन थी और पिता भारतीय थे। वे भी एक बहुत बड़ी पेंटर रही हैं। अगर ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो हमारे संबंध काफी गहरे रहे हैं। रबिन्द्रनाथ टैगोर का तो बहुत गहरा संबंध है। आप जानती ही हैं, वे उन्नीस सौ छब्बीस में बलातोनफुरेद में रहे थे। जब हंगरी में कम्युनिस्ट शासन था, उस समय भी हिंदुस्तान के साथ हंगरी का बहुत गहरा संबंध था। हमारे यहाँ उस समय रूपी ट्रेड का समझौता था। उसके तहत हंगरी के साथ काफी व्यापार होता था। हमारे यहाँ पच्चीस से ज़्यादा संयुक्त उद्यम (जोइंट वेंचर्स) थे। उन्नीस सौ नब्बे के बाद, जब से हंगरी प्रजातांत्रिक (डेमोक्रटिक) सिस्टम में आया है, उसके बाद भी हमारे संबंध काफी गहरे होते चले जा रहे हैं। हमने विभिन्न क्षेत्रों में समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं। हमारा जो व्यापार है, वो पिछले वर्षों में काफी बढ़ा है। मैं यह नहीं कहता कि बहुत अच्छा है, लेकिन फिर भी दोनों देशों के बीच में छह सौ मिलियन डालर का व्यापार है । इसके अलावा आर्थिक संबंधों में काफी जोइंट वेंचर्स हैं दोनों देशों के बीच में। कुछ हंगरी में हैं, कुछ इण्डिया में भी हैं। संस्कृति और कला की क्षेत्र में तो वैसे भी बहुत गहरे संबंध हैं।
इन्डियन डांस ग्रुप्स, संगीतकार और यहाँ आते रहते हैं और अपनी पर्फोर्मेंस देते रहते हैं। इन्डोलॉजिस्ट व अन्य विषयों के विशेषज्ञ भी आते हैं । हंगरी में हिन्दुस्तानी नृत्य और संगीत की क्लासिज़ चलती हैं। हंगरी के नागरिकों का किसी न किसी रूप में हिंदुस्तान के साथ संबंध है। काफी लोग जो हिंदुस्तान घूमने के लिए जाते हैं, वे भी बड़ी अच्छी यादें लेकर वापस आते हैं। वे यहाँ के अन्य नागरिकों से बातचीत करते हैं। और इसकी वजह से हंगरी में योग बहुत प्रसिद्ध है। बुदापैश्त में २०० से ज़्यादा योग सेण्टर हैं। यहाँ ६-७ हिन्दुस्तानी संगीत और नाच-गाने के शिक्षक हैं, जो स्वयं भी हिन्दुस्तानी म्यूज़िक और हिन्दुस्तानी डांसिज़ परफोर्म करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में अगर आप देखें तो यहाँ इंडोलोजी में काफी लोगों की रुचि है। ऐल्ते यूनिवर्सिटी में हिंदी और संस्कृत की पढ़ाई जाती हैं। आयुर्वेद में भी यहाँ के लोगों की काफी गहन रूप से रुचि है। इस साल आयुर्वेद की यहाँ एक बड़ी कान्रेंर्स हुई थी। हम चाहते हैं कि अगले साल भी यहाँ एक बड़ी कान्रेंेकस करें। यहाँ दो तीन आयुर्वेदिक केंद्र भी हैं। तो समुचित रूप से देखें तो हमारे संबंध ऐतिहासिक हैं, और अभी भी वे आगे की तरफ बढ़ते चले जा रहे हैं।

ओर्शोया सास:- महामहिम जी आप अब क़रीब ३ महीने से रह रहे हैं हंगरी में, आपने अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का उद्घाटन भी किया है और हंगरी में पर्यटन भी किया है। इनके आधार पर आप क्या सोचते हैं-

यहाँ के लोगों की भारतीय संस्कृति की कल्पना कैसी है?

क्या इसमें कुछ बदलने या जोड़ने की ज़रूरत है?



महामहिम जी:- जैसे मैंने अभी आपको बताया, कि भारतीय संस्कृति में हंगेरियन लोगों का काफी इंटेरेस्ट है, काफी रुचि है। यहाँ पर हर सप्ताह कम से कम एक या दो भारतीय संगीत या भारतीय नाच-गाने के प्रोग्राम होते हैं। और सिर्फ बुदापैश्त में ही नहीं बल्कि अलग-अलग शहरों में होते हैं। यह तो एक बहुत ही अच्छी प्रवृत्ति है। हम इससे बड़े खुश हैं। और हमें देखकर कभी-कभी ऐसा लगता है कि हम हिंदुस्तान में ही हैं।

ओर्शोया सास:- महामहिम जी दूतावास के पास जो नया भवन, सांस्कृतिक केंद्र बन रहा है, उसमें किस तरह के कार्यक्रमों का आयोजन करने की योजना है?



महामहिम जी:- सांस्कृतिक केंद्र में हम कई तरह के आयोजन करेंगे। नाच-गाने के अलावा हम यह भी चाहते हैं कि भारतीय सभ्यता, संस्कृति से जुड़े विषयों पर कॉन्रेहमसेज़ हों। हम चाहते हैं कि कुछ प्रदर्शनियाँ की जाएँ, किताबों की, चित्रों की। हम यह भी चाहते हैं कि यहाँ हिन्दुस्तान शिल्पकला, इतिहास सभ्यता आदि जैसे विषयों पर भाषण हों। ताकि हंगेरियन लोगों को कुछ अधिक जानकारी मिल सके। इसके अलावा हम चाहेंगे कि हंगरी के सांस्कृतिक संस्थानों के साथ संयुक्त रूप से कार्यक्रम भी बनाएं। इससे यह होगा, कि दोनों देशों के लोग एक दूसरे से मिल-जुलकर कार्यक्रम बनाएंगे। जिससे आपस में उनकी समझ और ज़्यादा बढ़ेगी।

ओर्शोया सास:- महामहिम जी अगले साल विश्वप्रसिद्ध लेखक रवीन्द्रनाथ ठाकुर के जन्म की एक सौ पचासवीं वर्षगाँठ मनाई जानेवाली है। क्या इस अवसर पर कुछ विशेष कार्यक्रम भी होंगे, बुदापैश्त में और बालातोंफुरेद में?



महामहिम जी:- हम अभी एक बहुत बड़ी कॉन्रे रस और एक्सहिबिशन करने की योजना बना रहे हैं, मई २०११ में। इसमें हम योरोप के विभिन्न हिस्सों से भारतविद्याविदों को बुलाएंगे। ये लोग रवीन्द्रनाथ ठाकुर, उनकी रचनाओं और उनके दर्शन के बारे में अपने अनुभव लोगों को बताएंगे और चर्चा करेंगे। यह एक विश्व कॉन्रेहैस होगी। एक विश्व कोंफेरेंस पेरिस में भी भारतीय सरकार की तरफ से होगी। इसके अलावा रवीन्द्रनाथ ठाकुर से सम्बंधित जितनी भी पेंटिंग्स हैं और उनका संगीत है, उसकी प्रदर्शनी इस कॉन्रेबतस के दौरान यहाँ की जाएगी। बालातोंफुरेद में हम सांस्कृतिक प्रोग्राम करने की योजना बना रहे हैं। इसके साथ हम यह भी सोच रहे हैं, कि अमृता शेरगिल की पेंटिंगस का आयोजन भी बालातोंफुरेद में किया जाए। यह अभी पक्का नहीं है, लेकिन इसपर विचार चल रहा है।



ओर्शोया सास:- महामहिम जी आप राजदूत होने के साथ-साथ कवि व लेखक भी हैं। आपके हिंदी भाषा के बारे में विचार क्या हैं? भारतीय लोगों की अंग्रेज़ी बोलने की इच्छा के आगे हिंदी हार तो नहीं जाएगी?



महामहिम जी:- नहीं, हिंदी की हार कभी नहीं होगी, लेकिन यह एक सच्चाई है कि हिंदी जो है, उसकी शुद्धता थोड़ी कम होती चली जा रही है। भारतीय लोग, जिनमें मैं भी शामिल हूँ, कई बार शुद्ध हिंदी के कई शब्दों का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। क्योंकि अंग्रेज़ी के शब्द हिंदी के साथ इतने मिल-जुल गए हैं कि जब आप बोलते हैं तो हिंदी के साथ-साथ कुछ अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग कर लेते हैं। मैं यह नहीं कहता कि नयी भाषा है, लेकिन यह एक नया विकास है, जो हिंदी भाषा में हो रहा है। कुछ लोग इसको हिंग्लिश बोलते हैं कि जिसमें हिंदी और इंग्लिश का एक समन्वय होकर एक नयी भाषा खुद सामने आ रही है। लेकिन मैं नहीं मानता कि यह नयी भाषा है, लेकिन सच्चाई यह है कि अंग्रेज़ी के शब्द हिंदी में मिल-जुल गए हैं, और जो लोग भारत में हिंदी बोलते हैं वे बिलकुल शुद्ध हिंदी नहीं बोल पाते हैं। वे अंग्रेज़ी के बहुत शब्द उसके साथ जोड़कर फिर बातचीत करते हैं।

ओर्शोया सास:- महामहिम जी विदेशों में कई विश्वविद्यालय में हिंदी भाषा सिखाई जाती है। हम भी भाग्यशाली हैं कि हमारे पास मारियाजी हैं जिनको कुछ साल पहले दिल्ली में ग्रियर्सन हिंदी सेवी पुरस्कार मिला है हिंदी भाषा का प्रचार करने के लिए। क्या विदेशों में हिंदी सीखने के इस जोश का भारत में भी कुछ प्रभाव पड़ सकता है हिंदी की भूमिका को आगे बढ़ाने में?



महामहिम जी:- नहीं, ऐसा है कि हिंदी की शुद्धता बहुत ज़रूरी है। मैं इस चीज़ में पूरा विशवास करता हूँ। और मैं यह भी चाहता हूँ कि हिंदी को और ज़्यादा प्रोत्साहन दिया जाए। लेकिन जबसे ग्लोबलाइज़ेशन विश्व में चालू हुआ है तब से अंग्रेज़ी का प्रभुत्व हिंदुस्तान में ही नहीं लेकिन संसार के और भी देशों में बढ़ता चला जा रहा है। मैं फ़्रांस में था। एक समय था जब फ़्रांस में अंग्रेज़ी बहुत कम बोली जाती थी बहुत कम समझी जाती थी। आज वहाँ का प्रत्येक नवयुवक फ्रेंच के साथ-साथ अंग्रेज़ी बोलता है। यह हंगरी में भी ऐसा ही होता चला जा रहा है। जितने भी नवयुवक हंगरी में हैं, हंगेरियन के साथ उनकी दूसरी भाषा अंग्रेज़ी है। इसी तरह से हिंदुस्तान में भी अंग्रेज़ी दूसरी भाषा है। हिंदी के साथ-साथ अंग्रेज़ी दूसरी भाषा है, लेकिन जो विकास हिंदी में अंग्रेज़ी के शब्दों के समन्वय का हो रहा है, वह और देशों में नहीं हो रहा है। ऐसा नहीं है कि अंग्रेज़ी और फ्रेंच मिक्स हो रही हैं, ऐसा नहीं होता। या हंगेरियन और अंग्रेज़ी मिश्रित हो रही हैं, ऐसा नहीं होता। लेकिन हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी और हिंदी का मिश्रण होना चालू हो गया है। वह एक अच्छी चीज़ नहीं है। और हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम इससे दूर हटें, हिंदी की शुद्धता बरकरार रखें और साथ में अंग्रेज़ी की शुद्धता भी बरकरार रखें। लेकिन हिंदुस्तान में इतनी बड़ी जनसँख्या है कि इन सब लोगों को नियंत्रित करना और उनको ठीक ढंग से आगे पहुँचाना इतना आसन भी नहीं है। लेकिन मैं आशा करता हूँ कि हिंदी की शुद्धता बढ़कर ही रहेगी। पहले भी हिंदी में अगर आप देखें तो उर्दू का मिश्रण हुआ है, पर्शियन शब्दों का मिश्रण हुआ है, टर्किश शब्दों का मिश्रण भी हुआ है, अरेबिक शब्दों का मिश्रण भी हुआ है। तो हिंदी जो है वह सबको अपने अन्दर समाहित कर लेती है। तो मैं समझता हूँ कि कुछ अंग्रेज़ी के शब्दों को भी हिंदी अपने आप में समाहित कर लेगी।



ओर्शोया सास:- आपको क्या लगता है, आजकल जो बड़ा आर्थिक विकास दिखता है भारत में उसका भी प्रभाव हो सकता है हिंदी भाषा पर?



महामहिम जी:- बिलकुल होगा। जो हो रहा है सचमुच अभी। जब देश की आर्थिक व्यवस्था सुधरती चली जा रही है, तो विदेशी लोग बड़ी संख्या में हिंदुस्तान जा रहे हैं। वे अपने कारोवार के साथ जा रहे हैं, इंडस्ट्रीज लगा रहे हैं। और हर देश के लोग हिंदुस्तान में अपना ऑफिस खोलना चाहते हैं। तो उनके लिए ज़रूरी है कि वे भी थोड़ी हिंदी सीखें। और इसी की वजह से विदेशों में हिंदी का प्रचार और प्रसार हो रहा है, और होगा। अगले १० साल में हिंदी और ज़्यादा विकसित होगी विदेशों में।



ओर्शोया सास:- महामहिम जी प्रमोद जी द्वारा संपादित भित्ति-पत्रिका ‘प्रयास’ अब इन्टरनेट पर भी पढ़ी जा सकती है। ऐल्ते विश्वविद्यालय का हिंदी को आगे बढ़ाने का यह प्रयास आपको कैसा लग रहा है?



महामहिम जी:- यह पत्रिका बहुत अच्छा एक निर्देश है। एक अच्छा कदम है। इस कदम से हिंदी का हंगरी में और ज़्यादा विकास होगा। जो छात्र-छात्राएं हिंदी पढ़ रहे हैं, उनको हिंदी समझने और उनकी हिंदी को सुधारने का एक अच्छा अवसर मिलेगा। तो इसके लिए प्रमोदजी को धन्यवाद देता हूँ, उनको बधाई देता हूँ कि यह नया कदम उठा रहे हैं।



ओर्शोया सास:- महामहिम जी हमारा यह दूसरा प्रोग्राम भी चल रहा है काफी सालों से जो भारतीय दूतावास और ऐल्ते विश्वविद्यालय साथ-साथ चलाते हैं। क्या इसको आगे बढ़ाने या बदलने की कुछ योजनाएं हैं?



महामहिम जी:- बिलकुल, मैं यह चाहता हूँ कि एक तो हिंदी की जो छात्रवृत्ति मिलती है हिंदी आगे पढ़ने के लिए, वह अभी सिर्फ २ छात्रवृत्तियां दी जाती हैं कई वर्षों से। मैं अभी कोशिश कर रहा हूँ, कि अगले साल ४ छात्रवृत्ति दें और उसके अगले साल ६। तो छात्रवृत्तियों की जो संख्या है वह बढ़े। इससे यहाँ जो हिंदी सीखनेवाले छात्र-छात्राएं हैं वे हिंदुस्तान में जाकर और अच्छी हिंदी सीख सकें। दूसरा, मैं यह चाहता हूँ कि जो बहुत अच्छे विद्यार्थी हैं यहाँ पर उनको पुरस्कार दिया जाए। अच्छा पुरस्कार दिया जाए। जिससे कि उनको प्रोत्साहन मिले हिंदी आगे। हम पिछले साल के पुरस्कारों के बारे में निर्णय ले चुके हैं। पुरस्कृत होनेवाले छात्रों में ३ विश्वविद्यालय के छात्र और ३ दूसरी कक्षाओं के छात्र हैं। मैं चाहता हूँ कि सितम्बर-अक्तूबर में एक छोटी सा कार्यक्रम किया जाए, जिसमें हम इन सब लोगों को पुरस्कृत करें। हो सकता है कि यह सांस्कृतिक केंद्र के उद्घाटन के समय हो। और इस संबंध मैं और भी निर्णय धीरे-धीरे लूँगा इससे कि हिंदी का प्रचार और प्रसार बढ़े। भारत में हिंदी प्रचार का जो ऑफिस है, उससे मैं बात करूँगा, और चाहूँगा कि कुछ ऐसे कदम उठाए जाएँ कि विद्यार्थियों को प्रोत्साहन मिले।



ओर्शोया सास:- महामहिम जी हंगरी के इन्डॉलोजिस्टों लोगों को एक साथ इकठ्ठा करने की कोई योजना है?



महामहिम जी:- बिलकुल, मैंने मारियाजी कहा है कि मैं हंगरी के इन्डॉलोजिस्टों का एक छोटा सा सम्मेलन करना चाहता हूँ। उसमें हम आपस में सब चीज़ों को विस्तार से सोचें-समझेंगे, और यह कोशिश करेंगे कि इंडोलोजी को और ज़्यादा लोगों के नज़दीक कैसे ले जायें। यह तब संभव होगा जब हम आपस में बैठकर विचार करेंगे। एक दूसरे के विचारों को सुनेंगे, समझेंगे और उसके बाद आगे बढ़ने के लिए एक योजना ऐसी तैयार करेंगे जिससे कि इंडोलोजी हंगरी के लोगों में और ज़्यादा लोकप्रिय हो।



ओर्शोया सास:- अंत में आप भारत प्रेमी हंगरीवासियों को और यहाँ रहने वाले भारतीय लोगों को क्या सन्देश देना चाहेंगे?

महामहिम जी:- मेरा संदेश सबके लिए यही है कि हिंदुस्तान व हंगरी के लोग आपस में मिलजुलकर आगे बढ़ें, एक-दूसरे को अच्छी तरह से समझें, एक दूसरे से सीखें। इससे हंगरी की और हमारे देश की भी समृद्धि बढ़ेगी, दोनों देशों की सभ्यता और संस्कृति में और ज़्यादा मेलजोल होगा और हम लोगों के संबंध और ज़्यादा नज़दीकी बन जाएँगे। इससे दोनों देशों को और दोनों देशों की जनता बहुत फायदा होगा।

हंगरी में रोजगार की संभावनाएँ

इस्ताफी दैनियल--

हंगरी में रोजगार का क्षेत्र सारी दुनिया जैसा है। आजकल की सारी दुनिया आर्थिक संकट की हालत में है। इस कारण से नौकरी मिलने की संभावना भी कम होती जा रही हैं। सारी दुनिया में बेरोजगारी का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है। ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में परिवर्तन भी नहीं होगा। हंगरी में बेराजगारी प्रतिशत लगभग 10.5 है। यह संख्या बहुत अधिक है। इसका मतलब है कि नौकरी कर सकनेवाले हर दसवे व्यक्ति को नौकरी नहीं मिल पाती।
इस प्रवृत्ति का शिकार युवा लोग होते हैं, क्योंकि मालिक युवा लोगों को नौकरी नहीं देना चाहते। क्यों? क्योंकि युवा लोगों को नौकरी का कोई अनुभव नहीं होता। युवा लोगों को काम में लगाने का कोई फायदा नहीं है। सरकार को समझ में आया कि यह प्रवृत्ति बहुत बुरी है। उसने इस प्रवृत्ति में बदलाव किया। अगर एक मालिक युवा को नौकरी में रखता है, तो उसका कर कुछ कम हो जाएगा।
यदि आजकल की दुनिया में आर्थिक संकट नहीं होता, तो सबसे लोकप्रिय, सबसे अच्छे रोजगार क्या-क्या होते? इस क्षेत्र में भी हंगरी पूरे विश्व जैसा ही है। यहाँ भी वे रोजगार प्रिय हैं जिनमें लोग पैसा अधिक कमा सकते हैं। हंगरी में अर्थशास्त्री, इंजीनियर और वकील होना बहुत अच्छा है। हंगरी में एक अजीब हालत भी है, सबसे आवश्यक नौकरी करनेवाले लोगों को सबसे कम पैसे मिलते हैं। ये रोजगार आमतौर पर संसार से संबंधित होते हैं, जैसे डॉक्टर, अध्यापक, नर्स वगैरह। उनके लिए पैसे संसार से कम मिलते हैं, पर संसार का बजट बहुत कम है। ऐसे हालातों में बड़ी समस्या है क्योंकि एक देश के दो आधारभूत क्षेत्र शिक्षण और स्वास्थ्य वाली पद्धति है। अगर कोई भी डॉक्टर और अध्यापक नहीं बनना चाहता है तो कुछ वर्षों बाद हंगरी में बहुत बड़ा संकट होगा। हमारे सबसे अच्छे डॉक्टर पश्चिमी देशों में काम करने लगे हैं, अध्यापकों को पढ़ाने में कोई अभिप्रेरणा नहीं है।
हंगरी में रोजगार के क्षेत्र की स्थिति बुरी है। अब सब लोग चुनाव का इंतजार करते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि अगली सरकार रोजगार के क्षेत्र में सुधार करेगी।

साड़ी



साड़ी भारतीय औरत का मुख्य परिधान है | यह लगभग ५ से ६ यार्ड लम्बी बिना सिली हुए कपड़े का दुकड़ा होता है | साड़ी के नीचे औरतें ब्लाउज या चोली और साया पहनती हैं | भारत में बहुत तरह-तरह की साड़ियां हैं | औरतें भारत के अलावा बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान और श्री लंका में भी साड़ी पहनती हैं |
बनारसी साड़ी भारत में और दुनिया भर में बहुत मशहूर है | बनारसी साड़ी रेशम से बनी साड़ी है, जिस में सोने की कशीदाए हैं | इन साड़ियों को बनारस या वाराणसी में बनाते हैं, जिसे उत्तर प्रदेश में है | बनारसी साड़िया बहुत भारी हैं अपनी शानदार काशीदाओं के कारण इसलिए औरतें सिर्फ़ विशेष मौकों में जैसे शादिया और उत्सव में पहनती हैं |
चंदरी साड़िया भी बहुत प्रसिद्ध हैं | ये साड़िया रेशम या सूती से बनी साड़िया हैं |
तमिल नाडु की कांचीपुरमी साड़िया भी बहुत सुन्दर और मालूम हैं | ये भी रेशम से बनती हैं|
साड़िया शादि के लिए परंपरा के अनुसार लाल और इन में सोने की कशीदाए हैं |
दुर्भाग्य से अत्यधिक भारतीय औरतें पश्चिमी कपड़े पहनने लगती हैं | मैं सोचती हू यह बहुत ख़राब है क्योंकि साड़िया बहुत स्त्री हैं और साड़िया अच्छी लग रही हैं | साड़िया भारत की महत्वपूर्ण विलक्षणता हैं |





                  

वृन्दावनलाल वर्मा का जीवन

अत्तिला सबो--
वृन्दावनलाल वर्मा जी हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ ऐतिहासिक उपन्यासकार हैं। वे झाँसी ज़िला के मऊद्रानी ग्राम में नौ जनवरी १८८८ (अठारह सौ अठासी) को पैद हुए थे तथा १९६९ (उन्नीस सौ उन्हत्तर) में मर गये थे। वर्मा जी में ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की कुछ जन्मजात प्रतिभा थी। उनके दादा झाँसी की महारानी लक्ष्मीभाई के दीवान थे जो एक राष्ट्रीय विद्रोह में मारे गये थे। बी० ए० करने के बाद वर्मा जी झाँसी में ही वकालत करने लगे थे। बचपन से ही उन्हें लिखने की बड़ी उत्कट इच्छा थी। सोलह-सत्रह वर्ष की अवस्था में ही न्होंने कई नाटक लिखे। १९१० (उन्नीस सौ दस) से उनकी कहानियाँ सरस्वती में छपने लगीं। वे अध्ययन-शील, संगीत-प्रेमी, शिकार और यात्रा-प्रेमी के शौक़ीन थे। वर्मा जी ने वास्तविक घटनास्थलों पर जाकर वृत्त-संग्रह करके तैयार किया था। उन्होंने कहानियाँ, नाटक और उपन्यास भी लिखे लेकिन सबसे अधिक उन्होंने उपन्यास के क्षेत्र में काम किया था। वर्मा जी ने दो दर्जन उपन्यास लिखे हैं जैसे – संगम, कभी न कभी, झाँसी की रानी लक्ष्मीभाबाई, सत्रह सौ उन्तीस’ (1729), सोना, अमर बेल, प्रेम की भेंट। उन्होंने अपने जीवन-काल में हिन्दी को अनेक ग्रंथ दिये – ऐतिहासिक उपन्यास, सामाजिक उपन्यास, कहानी-संग्रह, ऐतिहासिक और सामाजिक नाटक आदि।

मई

शागी पेतैर--


मई का महीना है। यह माह, जिसमें मेरी पैदाइश हुई, और जिससे इसी तरह मेरा दिल का रिश्ता बना रहता है, हंगरी में हवाऔं का मौसम है। भारत में यह तो पहले से हो चुका है, मई बिना हद की गरमी का समय होता है, है ही। आने से पहले मेरे एक दोस्त ने शांदोर मारई की एक रचना: बारामासा दी थी। हर महीने में एक-एक छेद पढ़कर मैं इसमें प्रकट की गई भावनाओं से सहमत होता जा रहा था, यूरोप का वातावरण के प्रसंग सर्वोच्‍च गद्य के रूप में मारइ बदलते मौसम के प्रति अपने - सब के ऐहसासों को सहज ढंग से सामने ले आते हैं।
फिर मई तक पहुँचकर ऐसा लगा, कि इस जीवन्त माह को, जाने कैसे, गलत नज़रिए से देखते हैं। उनके कहने का तातपर्य है, कि मई द्विमुखी है, जिसकी खुशी और ताज़गी के पीछे कुछ उलटा, बेठीक, धमकी लगानेवाला छिपा है। चूँकि पिछले दो हफ़्तों में गैरसाफ़ उस्तारा इस्तेमाल करके चेहरा चोट ही चोट बनने का दर्द भुगतना था, आखिर में फिर भी काबुल करता हूँ, कि हाँ, मई में कुछ कठिनाइयाँ भी सामने आ सकती हैं।
इस के कारण मन करता है, कि उपरोक्त निबंधमाला का आयुक्त भाग हिंदी में प्रस्तुत करूँ।
       
मई का एक राग है, जिसे अक्षरों में लेना गीतों के अंतर्राष्ट्रीय रचइता असफल कोशिश करते जा रहे हैं। उन्होंने इस वजह से जाने क्या प्रयास नहीं किया है, किंतु अभी तक महज ताल-राग से भरा अंगीत-संगीत हुआ नरगिस और कम परस्पर प्यार की लक्षणा सहित। मई का असली राग इससे गहरा है, द्रवित कहीं से नहीं होती। भूकंप का कुछ साथ लिए जाती है। व मृत्यु की सरसराहट का कुछ भी।भीषण महीमा है। चतुर वृद्ध पसंद नहीं करते, स्वाद, प्रकाश और गंध इसका सावधानी से लेते हैं, हो सके, तो इसके आगे से छिप जाते हैं, या कहीं यात्रा करते भाग जाते हैं।
मेज़ आश्चर्यजनक कैसे भरपूर हो जाती है: साग व मुर्गे-मुर्गी से। पर लोगों का दिल सख्त और हैरान है। मई के त्यौहार काफ़िर और तेज़ हैं। सब कुछ शोर मचाता है, कुछ कहना चाहता है। हवा जल्द कुलबुलाते, कसैले गंधों से पूरी हो जाती है, अमानव रोशनी से, किसी प्राचीनकाल के त्यौहार की निर्मम, जगमग चमक से। मई का आत्मघातक होता है, जैसे कि मई की नरगिस, मई की तली मुर्गी। इस आक्रमण से इंसान सभ्यता की दीवारों का शरण जाता है। मई में किताब लिखते नहीं बनती। पढ़ना भी मुश्किल है। हर जो जीतता है, इन किरणों और गंधों को व्यक्तिगत, चेतन के प्रति अत्याचार समझता है। मई की धुप निर्मम है, तथा अगस्त की रोषित धूप की अपेक्षा अधिक भयानक, जो तलवार हिलाती नोचती-काटती है चारों तगफ, उन्मत्त, मानो कोई लाल आँखों वाला पूर्वी योधा हो। मई ज़हर और सुनहले टीके लेकर नष्ट करती है, जैसे एक हससिन, रोका नहीं जा सकता। मई का लक़वा भी है। प्रकृति भावुक नहीं होती।
इस माह का आम बात प्रेम है: ठीक-ठीक, जैसे बिलकुल बेकार और बिलकुल उच्‍च उपन्यासों में, प्रेम एवं निधन। प्राकृतिक घटनाएँ में भद्दापन और उत्कृष्टता एकसाथ देखे जा सकते हैं। यह महीना है, जिसमें अधिकांश लोग हैरान, मानो दायित्व से प्यार के पीछे पड़ जाते हैं, जैसे सर्दियों के दौरान बूट, गर्मियों में स्विमिंग पूल का पास खरीदते हैं। मई के प्यार का कोई भरोसा नहीं। अधिकतर वह व्यक्ति के लिए नहीं होता, बल्कि प्रधान लोकमत की तानाशाही के सामने घुटने टेकता है, मई के सामने। मई के प्यार की भेंट सितम्बर में सप्रणाम, साथ-साथ चौंककर करते हैं। यह कैसे…?’ ’ध्यान नहीं रखा था…?’ मई में हर महिला थोड़ी मात्रा में टिटानिया है। किसी दिन जादू खत्म, जागती हुई तिथि-पत्र देख लेती है, आराध्य गधा-खोपड़ा ताकती रहती, अचंभा में आती है।
एक निश्चित मई याद आती है, सागर के बीच, बिना फलों और हरियाली के, अफ्रिका और यूरोप के अंतर, जब जो भी इस वहमी और काफ़िर महीने का जमीम पर जन को चिंतित कर देता है, समुद्र की ओर से मेरे तरफ आ रहा था, किरणों की प्रतिबिंबा से, गरम हवा से। मई बिना फूलों के भी निर्मम है। मेरे बचपन के मई के सवेरे याद आते हैं, घर के गिरजे में पूजा करते हुए मरयम की वेदी के आगे, कमलों और गुलाबों से घिरे। कभी-कभर इन सवेरों की लय सुनाई देती है। किसी मई की शाम याद है, जब करीब मर गया एक औरत के लिए। ऐसा आजकल मुझसे नहीं घट सकता। चुस्त हूँ, सावधान। चेहरा मई की रूढ़, किंवित धूप को दिखाता हूँ, और आँखें मूँदे सोचता हूँ: ’अफ़सोस…’

पतंग

वासिल मिंतशेव--
मेने एक पतंग पाया
और हरे प्रह्लादित हो गया
उसके साथ चारागाह भागा
उसे उड़ने देखना चाह
और वह उड़ा और वह उड़ा
नीले गगन में
जब में हरे चारागाह पर ठहरा
और मैं भी उड़ना चाहने लगा
क्यों पतंग सकता है और मैं नहीं ?
लड़ी हाथ में ली
और आपको उड़ाया
 और मैं उड़ा और मैं उड़ा
नीले गगन में
जब मैं उड़ा लड़ी फटी
और मैं हरे  प्रह्लादित गिरा
आब मैं अकेला हो गया
और पतंग उड़ा और उड़ा
लौट कभी नहीं उड़ा
नीले गगन से

कहाँ हैं वेद की रात्री देवी?

वेरोनिका सूच--



वेद हिन्दू परम्परा का पवित्र स्रोत मने जाते हैं| वैदिक साहित्य में देवियों की संख्या कम है, जो वैज्ञानिक ऐसे समझाते हैं, की वेद के युग में धर्म ओर समाज में पुरुषों का अधिकार था| लोग हमेशा घूमते रहते थे, एक के बाद दूसरे ग्राम और देश से झगड़ा करते थे, वैदिक समाज के लिए औरतों, बच्छों और ग्रामीण जीवन की तुलना में सैन्य कार्य ज़्यादा महत्त्वपूर्ण था| इसलिए जो देवियाँ वेद में सामने आती हैं, उनकी भूमिका देखबाल करने वाले माता की नहीं है| वे सैनिकों और ब्राह्मणों को अधिक कामयाब और सुखद कार्य करती हैं| आर्य समाज का जीवनधारा बदल जाने के बाद, जब आर्य लोग स्थायी गाँव में रहने लगे, धर्म में भी देवियों, खासकर माता-देवियों की भूमिका ज़्यादा महत्त्व की होने लगी थी|
आम तौर पर कहा जा सकता है, कि देवियों की परम्परा बाद के ब्राह्मनिक और हिन्दू धर्म में बिना रुकावत चली जा रही थी, लेकिन उनमे से दो-एक हमेशा के लिए गायब हो गयी थी| ऐसी अदृश्य देवियाँ निरृति, पुरंधि, अरण्यानी और रात्री हैं| हम रात्री देवी से बाद के धार्मिक विकास में आसानी से नहीं मिल सकते हैं, लेकिन उनका व्यक्तित्व से मैकडोनेल का वैदिक रीडर पढकर अच्छी तरह परिचित हो सकते हैं| रात्री देवी ने मेरे ध्यान को इसलिए आकर्षित किया, क्योंकि वे अन्य बहुदैविक धर्मों में भी प्रस्तुत हैं, और उनका अभाव हिन्दू देवसमूह में वैक्यूम है| रात्री का स्तुति ऋग्वेद में पढ़ा जा सकता है| वे न सिर्फ रात की देवी, बल्कि खुद रात हैं, क्योंकि उनका वर्णन प्राकृतिक घटना और व्यक्ति के रूप में एक साथ किया गया है| वे सूर्य की बेटी और उशस (उषा देवी) की बहन हैं| यद्यपि रात्री आकर्षक,मनोहारी युवती हैं, उनिका व्यक्तित्व संदिग्द है| रात के सब से गहरे घंटों में आश्वासन मग्वाकर रात्री की आराधना किया जाता है| वे पूरी रत अपने सितारा-आँखों से विश्व को ध्यान से देखती रहती हैं, और आदमी को रात की खतराओं, जैसे वृकों और चोरों से सुरक्षित करती हैं| देवी रात में खुद प्रकाश का स्रोत हैं, प्राणियों को शांत स्वप्नों का देखबाल करती हैं, और सुबह होते ही नींद से भारी हुई दुनिया के लिए ताज़ा ओस देती हैं|
मगर रात, शान्ति ओर खतरा का भी समय है| इसलिए रात्री देवी रात के सब खत्राओं ओर दुष्ट प्राणियों का भी आलय हैं| वे एक बार थके लोगों की मदद करती हैं,दूसरी बार उनको नुक्सान पहुंचाती हैं| वे कभी-कभी रात जैसे बंजर और भयानक हैं|
रात्री देवी का महत्त्वपूर्ण कार्य है, कि वे अपने बहन, उशस के साथ समय का धागा बनाती हैं| रात और दिन का अनंत परिवर्तन विश्व की दृढ़ प्रणाली को प्रकट करता है| दोनों देवियों का कर्तव्य -प्रकाश और अंधकार, सक्रियता और निष्क्रियता का परिवर्तन- सृष्टि की नियमितता से भी सम्बंधित है| ऐसे रात्री और उषा की भूमिका और मिज़ाज पुरानी यूनानी देवताओं की से बराबर हैं| यूनानी मोइरै या रोमन पार्कै किस्मत की देवियाँ हैं| लेकिन जब तक वे समय का धागा बनाती एक-एक प्राणी के किस्मत पर प्रभाव डालते हैं, रात्री और उशस पूरे विश्व के समय का वस्त्र बुनती हैं| मतलब यह है, कि पुरानी यूनान और रोम में वक्त का प्रतीक देने के लिए धागा का इस्तेमाल किया जाता था, पुरानी भारत में समय के लिए वस्त्र प्रतीकात्मक था| पुरानी यूनानी धर्म में रात की देवी का नाम नूक्सथा(लैटिन: नोक्स) उषा की बराबर यूनानी देवी एओस (लैटिन में औरोरा) थी| यूनानी देवियाँ बहन के बजाय माँ और बेटी थी| मैंने उनका ज़िक्र इसलिए किया,क्योंकि उनकी प्रतिमाओं की विशेषताएं भारतीय मूर्तिकला का विश्लेषण करके बड़े महत्त्व की हो सकते हैं|
वेद के समय समाप्त होने के बाद रात्री देवी भी गायब हुई, इसलिए हम उनकी कोई मूत्रियाँ भी नहीं जानते हैं| नूक्स देवी की यूनानी या रोमन आकार ढीले कपड़े में पहनी युवा औरत है, जिन का दुपट्टा सर से ऊपर हवा द्वारा लहराया जाता है| यह सर के ऊपर फैलायी शाल यूनानी और रोमन देवालय के अलग-अलग सदस्यों की मूर्तियों पर भी दिखाई देती है| रात और चन्द्रमा देवियों के अलावा वायु देवता भी ऐसी शाल पहने हैं| ऐसे वायु देव का सुन्दर नमूना अफ़गानिस्तान में हड्डानामक एक जगह पर दिखाई देता है| रात वाले आकाश के देवताओं की लहराती हुई शाल, रेशम मार्ग से होकर प्राचीन रोम से चीन तक गयी| चीन की किज़िलगुफाओं में भित्तिचित्रोन पर इसके भी अच्छे प्रमाण हैं| किज़िल की हवा देवी उन वायु देवियों के सामान है, जो अफ़गानिस्तान के बामियान शहर में स्थापित बुद्ध की अतिविशाल मूर्ति के दीवारों पर चित्रित हैं| बामियान की हवा देवियाँ सूर्य देव के दोनों और उड़ते हुए, दुपट्टे लहराकर चित्रित हैं| चीन के दुन्हुअंग नगर की गुफाओं में शाल लहराते हुए सूर्य और चंद्रमा देव आपस में लड़ते चित्रित हैं|
वायु देवता की बाद की प्रतिमाओं पर यह उड़ती हुई शाल बहुत बार दिखाई देती हैं| लेकिन हम नहीं जानती, कि यह भारतीय कला का सृजन या मध्य-एशिया के कला का असर है, जैसे सूर्य देव का अश्वारोही जूते, और उनके रथ में जुड़े हुए सात घोड़े. सात अश्व यूनानी हेलिओस (लैटिन: सोल) देव के रथ के समान हैं| भारत में सूर्य आम तौर से दायीं और बायीं ओर उषा तथा प्रत्युषा देवियों द्वारा नियुक्त हैं| ये देवियाँ बाण मारने वाली हैं, उनके तीर सूरज की किरणों का प्रतीक हैं| सूर्य देव के आगे स्थित छोटा आदमी अरुण है, जो रथ का चालक है| अरुण सुबह सवेरे का देव है, उस समय का, जब आकाश की लाली सब से सुन्दर है| सूर्य की दोनों पत्नियां हैं, जिन के नाम महाश्वेता और राज्ञी हैं| उत्तर भारत और बंगलादेश की मूर्तियों पर बहुत बार पांचवी छोटी देवी, सूर्य देव के जूते के बीच में खाड़ी होती है|वह निष्प्रभा बुलाई जाती है, जिसका मतलब अंधकार है| यद्यपि निष्प्रभा देवी की ऐसी विशेष गुण नहीं हैं, जो यूनानी नूक्स और सैलैने (लैटिन: लुना, चन्द्रमा)देवियों से समान हैं, मेरे ख़याल से हो सकता है, कि वह शायद सूर्य देव की बेटी, रात्री देवी हैं|
यूनानी या रोमन और भारतीय सौर परम्पराओं का एक ही मूल है| बाद में गंधार देश से होकर रोमन प्रतिमा‍ विज्ञान की विशेषताओं ने और ज़ोरोअस्त्रियन सौर परम्परा ने भारतीय मूर्तिकला पर असर डाला| यूनानी हेलिओस का सूर्य देव का मुकाबला किया जा सकता है, जब तक यूनानी नूक्स और सैलैने एशिआई चन्द्र और वायु देवताओं से सम्बंधित हैं| रात्री देवी वेद का अतिमहत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व नहीं थीं, इसलिए हम सोच सकती हैं, कि वे औरों के साथ ब्राह्मणों के धर्म बदल जाने के बाद हमेशा के लिए गायब हो गयी| हिन्दू पुराण और विभिन्न समकालीन परम्पराओं की तुलना करके हम आश्चर्य से देखेंगे, कि जब तक लगभग हर एक बहुदैविक धर्म में रात या चन्द्र की देवताओं की अहम् भूमिका है, बाद की हिन्दू धर्म में पूरी रात के लिए कोई उत्तरदायी देवता नहीं मिलता| मेरी राय में यह शायद ऐसे है, लेकिन वास्तव में रात्री देवी हमेशा के लिए गायब नहीं हुई थी| वे अभी तक अपने बाप, सूर्य देव शक शैली के जूते के बीच, निष्प्रभा देवी के रूप में परिरक्षित हैं|